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निश्चयनय एवं व्यवहारनय)
(१०१
उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि हमारे लिए प्रयोजनभूत तो एकमात्र निश्चय के विषयभूत निज आत्मतत्त्व का आश्रय लेना ही है । व्यवहारनय का विषय तो शान्ति प्राप्त करने के लिए अप्रयोजनभूत होने से हेय है। आश्रय छोड़ने योग्य है।
व्यवहार के कथन की उपयोगिता यहाँ कोई प्रश्न करे कि - व्यवहार का आश्रय करने से जब आत्मा का अहित होता है तो ऐसे व्यवहार का कथन ही जिनवाणी में क्यों किया ? निश्चय का ही उपदेश देना चाहिए था।
ऐसा ही तर्क मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २५१ पर किया है। वहाँ पर समयसार गाथा ८ के आधार से उत्तर दिया है -
जह णवि सक्कमणज्जो अणज्जभासं विणा उ गाहेडं। ___ तह ववहारेण विणा परमत्थुवएसणमसक्कं ।। ८॥
अर्थ- जिसप्रकार अनार्य अर्थात् म्लेच्छ को म्लेच्छ भाषा बिना अर्थ ग्रहण कराने में कोई समर्थ नहीं है, उसीप्रकार व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश अशक्य है, इसलिए व्यवहार का उपदेश है।
__ “तथा इसी सूत्र की व्याख्या में ऐसा भी कहा है कि “व्यवहारनयोनानुसतव्य” इसका अर्थ है - निश्चय को अंगीकार करने के लिए व्यवहार द्वारा उपदेश देते हैं - परन्तु व्यवहारनय है सो अंगीकार करने योग्य नहीं है।"
इसी विषय को इसी ग्रन्थ के पृ. २५२ पर विशेष स्पष्ट किया है।
“प्रश्न - व्यवहार बिना निश्चय का उपदेश कैसे नहीं होता ? और व्यवहारनय कैसे अंगीकार नहीं करना ?
उत्तर - निश्चय से तो आत्मा परद्रव्यों से भिन्न, स्वभावों से अभिन्न स्वयंसिद्ध वस्तु है, उसे जो नहीं पहिचानते, उनसे इसीप्रकार कहते रहे तब तो वे समझ नहीं पावें । इसलिए उनको व्यवहारनय से शरीरादि परद्रव्यों की सापेक्षता द्वारा नर-नारक पृथ्वीकायादिरूप जीव के विशेष
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