Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 3
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 95
________________ ९४) ( सुखी होने का उपाय भाग-३ उत्पादन कर संसार बृद्धि करता रहेगा। इससे बचाने के लिए आचार्य महाराज का करुणा भरा उपदेश है कि “आत्मा अकर्ता स्वभावी है उसका ज्ञान-श्रद्धान करने से स्वसन्मुख वृत्ति उत्पन्न होकर निराकुलता प्राप्त होती है" ऐसी श्रद्धा कराने के लिये ही उपर्युक्त कथन है। प्रश्न - दो प्रकार की परिभाषाएँ क्यों की गईं? उत्तर – पहली परिभाषा तो आगम की मुख्यता से छह द्रव्यों से कर्तृत्व छुड़ाने की अपेक्षा से की गई है। दूसरी परिभाषा अध्यात्म की प्रमुखता से अपने स्वभाव का ज्ञान-श्रद्धान कराकर सारे जगत् से एवं अपनी पर्याय से भी कर्तृत्व छुड़ाकर एकमात्र अकर्तास्वभावी त्रिकाली ज्ञायकभाव में निजत्व कराकर उसही में तन्मय हो जाने की अपेक्षा से की गयी है। लेकिन दोनों ही परिभाषाओं का उद्देश्य तो एक मात्र वीतरागता प्राप्त कराने का है। प्रश्न - आत्मा अकस्विभावी ही है — ऐसा कैसे प्रतीति में आवे? उत्तर - बहुत स्पष्ट है। भगवान अरहंत की आत्मा का स्वभाव वर्तमान में प्रत्यक्ष प्रगट है । मेरे आत्मा का स्वभाव भी अरहंत के जितना और जैसे के तैसा ही तो है। “भगवान अरहंत की आत्मा सकल ज्ञेयों के ज्ञायक तो हैं लेकिन एक अंशमात्र के भी कर्ता नहीं है।" अगर अरहंत भगवान् पर में कुछ भी कर सकते होते तो वे उनके ही आत्मा से बंधी अघातिया कर्मों की प्रकृतियाँ जो शेष रह गई थीं और जिनके सद्भाव में सिद्ध दशा प्राप्त करने में विलम्ब हो रहा था उनका अभाव कर देते? अरहंत भगवान तो अनंत बल के धनी थे, वे समय के पूर्व ही उन प्रकृतियों का अभाव कर सिद्ध दशा प्राप्त कर लेते ? लेकिन वे प्रकृतियां अपनी योग्यतानुसार व्यय के काल में ही नाश होती हैं । इससे स्पष्ट है कि अरहंत की आत्मा भी अकर्ता होने से परम सुखी हैं। अत: मेरे आत्मा का स्वभाव भी अकर्ता ही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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