Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 3
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 94
________________ अनुभूति में इन्द्रियज्ञान बाधक कैसे ? ) ( ९३ डॉक्टर को उस मरीज की मृत्यु का कर्ता कहा जावेगा ? नहीं कहा जा सकता । इसीप्रकार ज्ञानी का, ज्ञायकस्वभावी ध्रुव में अहंपना आ जाने से, पर्याय के परिणामों के करने धरने के अभिप्राय का अभाव हो जाता है, क्रिया के सद्भाव में भी वह अकर्ता ही है। जैसे तीर्थंकर विहार की क्रिया होने पर भी वे उसके कर्ता नहीं है। आत्मा का भी अपनी पर्यायों में कुछ करने का अभिप्राय भी कर्तापना ही है। जैसे कोई किसी की हत्या करने का अभिप्राय रखता हो, लेकिन वह बच गया हो तो क्या हत्या का दोषी नहीं कहलावेगा ? इसीप्रकार करने धरने संबंधी अभिप्राय रखने वाला भी यथार्थत: कर्ता ही है । प्रश्न पर्याय तो अपनी ही है फिर इसका कर्ता मानने में कौन सी गलती है ? उत्तर - पर्याय अपने समय का सत् है, वह तो अपनी योग्यतानुसार अपने उत्पाद काल में होगी ही होगीं। जो पर्याय बिना किसी की अपेक्षा के अपने-आप ही अपने समय पर उत्पन्न हो रही है, उसमें यह कर्ता बनने वाला आत्मा क्या कर सकेगा? और जो पर्याय अभी उत्पन्न ही नहीं हुई अथवा होकर विनष्ट हो गई उनमें भी यह क्या कर सकेगा ? इसीप्रकार जो उत्पन्न हो ही चुकी उसमें करने को रह ही क्या गया, सारांश यह है कि अपनी पर्याय में भी आत्मा कुछ कर नहीं सकता । इस स्थिति में अपने को कर्ता मानना, मिथ्या ही होगा । पर्याय में भी फेरफार करने के अभिप्राय से ज्ञान पर्याय तो परलक्ष्यी ही बनी रहेगी तथा परिवर्तन नहीं होने से आत्मा दुःखी बना रहेगा । प्रश्न - जिस पर्याय का कर्तृत्व स्वीकार कराया, उसी के कर्तापने का निषेध करा रहे हैं, दोनों कथन विपरीत लगते हैं? - उत्तर ऐसा नहीं है, आचार्यश्री का उद्देश्य तो वीतरागता प्राप्त कराना है। पर्याय के कर्तापना मानने पर भी पर्याय में कुछ कर तो सकते ही नहीं अपितु दृष्टि बहिर्लक्षी ही बनी रहती है। फलत: निरन्तर राग का ww Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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