Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 3
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 98
________________ ( ९७ निश्चयनय एवं व्यवहारनय ) “आत्माश्रितो निश्चयनय पर्यायाश्रितों व्यवहारनयः ।" अर्थ – “आत्माश्रित कथन को निश्चयनय और पराश्रित कथन को व्यवहार नय कहते हैं ।” जिनवाणी के अनेक कथनों में से आत्माश्रित कथन को निश्चय का कथन तथा पराश्रित कथन को व्यवहार का कथन जानकर उसकी विषयवस्तु को हेय-उपादेय के रूप में श्रद्धान कराने का उपर्युक्त परिभाषा का प्रयोजन है। आलाप पद्धतिकार ने निश्चयनय की विषयवस्तु तथा व्यवहारनय की विषयवस्तु का ज्ञान तो कराया ही है, साथ ही हेय-उपादेय मानने का संकेत भी है। ___द्रव्यार्थिकनय की विषयवस्तु त्रिकाल एक रूप रहने वाली अभेद तथा अनुपचार स्वभाव वाली है, उसका निश्चय करना अर्थात् उसको अपनेपने के रूप में - उपादेय के रूप में स्वीकार करना निश्चय है। यह उसका भावार्थ है। वस्तु तो स्वयं अभेद अनुपचरित स्वभाववाली ही है फिर भी उसको भेद करके अथवा अन्य का उपचार करके उस वस्तु को ही भेदवाली व उपचार रूप कहकर व्यवहार कराना अर्थात् समझाना यह व्यवहारनय है। व्यवहारनय के कथन जैसी ही वस्तु मान लेवे तो विपरीतता हो जावेगी। पण्डित टोडरमलजी ने मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ २४८ से २५७ तक निश्चय व्यवहार के संबंध में बहुत प्रयोजनभूत स्पष्टीकरण किया है, आत्मार्थी को उस विषय का मनोयोगपूर्वक अध्ययन करना चाहिए। उक्त पृष्ठों में निश्चय-व्यवहार की निम्न परिभाषाएं दी हैं - (१) “सच्चे निरूपण को निश्चय और उपचरित निरूपण को व्यवहार कहते हैं । (२) “ एक ही द्रव्य के भाव को उस रूप ही कहना निश्चयनय है और उपचार से उक्त द्रव्य के भाव को अन्य द्रव्य के भावस्वरूप कहना व्यवहारनय है ! जैसे -मिट्टी के घड़े को मिट्टी का कहना निश्चयनय का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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