Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 3
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 88
________________ अनुभूति में इन्द्रियज्ञान बाधक कैसे ? ) (८७ जो ज्ञान आत्मा का अहित करे उसको उपादेय कैसे माना जा सकता है एवं वह प्रशंसा का पात्र कैसे हो सकेगा? अज्ञानी को, स्वभाव की अनभिज्ञता होने के कारण अकर्ता एवं ज्ञाानआनन्दस्वभावी आत्मस्वरूप की श्रद्धा नहीं होकर, इन्द्रियज्ञान के विषयभूत पदार्थों में सुखबुद्धि होने से, उनमें स्वामित्व मानकर प्रवर्तता है। उनको मैं अपने अनुकूल कर सकता हूँ, भोग सकता हूँ, प्रतिकूल लगने वाले एवं मेरे भोग में अथवा अनुकूल होने में, बाधक हों, उनको हटा सकता हूँ, नाश कर सकता हूँ आदि-आदि मान्यता के कारण कर्तृत्व-भोक्तृत्व के अभिप्राय का तीव्र जोर होता है। उन पदार्थों में अहं एवं ममपना होने से व स्वामित्व का विश्वास होने से, उनको इच्छानुसार करने में लिये पूरी शक्ति के साथ जुट जाता है। लेकिन पदार्थ तो परद्रव्य हैं। अत: अभिप्राय अनुसार उनका परिणमन होना कैसे संभव हो सकता कदाचित् पुण्य के उदय से कोई कार्य अपनी इच्छानुसार परिणमन करता हुआ दिखने लगता है तो अपने प्रयासों को सफल मानकर और भी तीव्र जोर से कर्तृत्व के अभिप्राय को दृढ़ करते हुए उनको बढ़ाने करने आदि में तीव्र गति से जुट जाता है। भोगने की तीव्र लालसा होने से, भोक्तृत्व बुद्धि के जोर के कारण, उनको जल्दी-जल्दी तथा ज्यादा-ज्यादा भोगने के लिए आत्मा से अत्यन्त दूर रखता हुवा अपने उपयोग को बाहर ही बाहर रोके रखने का उग्र प्रयास करता रहता है। लेकिन उपयोग भी अनित्य स्वभावी है बदले बिना रहता नही; फलत: दुःखी बना रहता है। कदाचित् पाप के उदय से प्रयासों की असफलता देखकर अथवा अभाव होता देखकर, कर्तृत्व भोक्तृत्व के उग्र अभिप्राय के कारण, असफलता का कारण अपने प्रयासों की कमी मानता हुआ और भी प्रबलता के साथ रखने और प्राप्त करने के प्रयासों में, जुट जाता है। प्राप्त विषयों का अभाव होते देख उस अभाव का कारण अपने पाप उदय को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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