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( सुखी होने का उपाय भाग-३ न मानकर, अन्य निमित्तों को बाधक जानता हुआ उनके प्रति द्वेष उत्पन्न कर, उनका अभाव कर देना चाहता है। इस ही मान्यता के कारण हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह आदि पाँच पापों का एवं सप्त व्यसनादि भावों का जन्म होता है।
अज्ञानी की इन्द्रियजन्य ज्ञान में उपादेय बुद्धि एवं उसके विषयभूत पदार्थों में सुख बुद्धि होती है फलत: उन से ज्यादा से ज्यादा, व जल्दीजल्दी सुख प्राप्त करने के प्रयासों में तीव्र लालसा के साथ प्रवर्तित रहता है मरण के भय को भी भूल जाता है। अपने उपयोग को बाहर इतना जकड़े रखना चाहता है कि एक क्षण भी खाली नहीं हो जावे। कदाचित खाली दीखने लगे तो कहता है-“कोई मनोरंजन चाहिए, मैं तो थक गया हूँ आदि आदि ।”
__ जैसे स्पर्शन इन्द्रिय संबंधी कामी पुरुष कामवासना की कितनी भी पूर्ति करे, तृप्ति के अभाव में मद्यपान कर, परस्त्री, वेश्यागमन, बलात्कार आदि कुकर्म करके राज्यदंड, समाजदंड भोगते हुए भी उनमें उपयोग को लगाये रखने में ही सुख मानता है। इसीप्रकार सभी इन्द्रिय विषयों के बाबत समझ लेना। अत: इन्द्रियज्ञान तो आत्मकल्याण का घातक है ही
और उसके विषयभूत पदार्थों में सुख बुद्धि होने पर तो वह आत्मार्थी का प्रबलतम शत्रु हो जाता है । ऐसे जीव का उपयोग तो कभी भी आत्मसन्मुख नहीं हो सकता।
जो परलक्ष्यीज्ञान मन के माध्यम से प्रवर्तता है, वह भी इन्द्रियज्ञान ही है । पाँचों इन्द्रियाँ तो देखने में आ जाती हैं अत: उनके अस्तित्व का तो विश्वास होता है, लेकिन मन चक्षुगोचर नहीं होने से उसका अस्तित्व ही नहीं दीखता। लेकिन सोचने विचार करने का कार्य कौन करेगी? अन्य इन्द्रिय का तो यह कार्य है नहीं। अत: सिद्ध है कि विकल्प, विचार, मन नाम की इन्द्रिय का कार्य है। अत: मन भी एक इन्द्रिय है एवं उसके माध्यम से प्रवर्तन करने वाला ज्ञान मन नामक इन्द्रियज्ञान है।
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