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नय एवं दृष्टि का अन्तर )
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भी नाम से बोलो, पर्याय का स्वभाव ऐसा ही है । जिस समय जो पर्याय जिन विशेषताओं को लेकर उत्पन्न होनी होती है, वैसी ही अपनी योग्यता से उसी समय उत्पन्न होती है। इसप्रकार एक-एक समय करके अनन्त काल तक चलते रहने वाला अहेतुक पर्यायसत् है । उसमें परिवर्तन का प्रयास असफल तो होगा ही, साथ ही उसका ज्ञान श्रद्धान भी मिथ्या बना रहेगा ।
उपरोक्त जानने से पर्याय के प्रति आकर्षण एवं ममत्वबुद्धि श्रद्धा में समाप्त हो जाती है तथा पर्याय एवं उसके निमित्तों को फेरफार करने संबंधी कर्ताबुद्धि समाप्त होकर उपेक्षा बुद्धि उत्पन्न हो जाती है । साथ ही अकर्ता स्वभावी ज्ञायक के प्रति आकर्षण बढ़ जाता है ।
स्वच्छन्दता के भय का निराकरण
प्रश्न
पर्याय में होने वाले विकार भावों के प्रति भी उपेक्षा से तो स्वच्छन्दता को प्रोत्साहन मिलेगा ?
उत्तर उपरोक्त शंका का समाधान विकारों की उत्पत्ति का कारण समझने से ही होगा । चारित्रगुण की विकृत पर्याय रागद्वेषादि को ही मुख्यता से विकार मानते व कहते हैं और वे ही ज्ञान में आते भी हैं । अतः इस चर्चा में अन्य गुणों के विकारों को गौण रखेंगे। क्योंकि अन्य गुणों के विकार, चारित्र के विकार के अभाव होते ही स्वतः अभाव हो जाते हैं ।
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समझने के लिये किसी गुण विशेष की पर्याय की अपेक्षा नहीं लेकर अखंड द्रव्य की अपेक्षा से समझेंगे । अखंड द्रव्य का, त्रिकाली भाव तो ध्रुव है एवं पलटता अर्थात् उत्पाद, व्यय वाला भाव पर्याय है । पर्याय का स्वभाव उत्पाद व्यय करते हुए अपनी सत्ता बनाये रखना है । इसका अर्थ ही यह है कि आत्मा के ज्ञान, दर्शन, श्रद्धा, चरित्र, सुख, कर्ता, भोक्ता, वीर्य आदि अनंत गुणों की सामथ्र्य की व्यक्तता, का उत्पाद तथा व्यय, हर समय होते रहना ही पर्यायगत स्वभाव है । निष्कर्ष यह है
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