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नय एवं दृष्टि का अन्तर )
(७९ नहीं रहता। लेकिन उसी समय वर्तने वाली ज्ञानपर्याय में, द्रव्यदृष्टि के विषय का ज्ञान, स्व के रूप में तथा पर्याय और पर्याय के विषयों का ज्ञान पर के रूप में साथ ही वर्तता है। ऐसा होने पर भी पर्याय का ज्ञान, दृष्टि को जरा भी हानि ही नहीं। लेकिन पर्याय का ज्ञान होते समय, अगर स्व को भूलकर, पर्याय को स्व के रूप में जानने लगे तो, द्रव्यदृष्टि का अभाव होकर मिथ्यादृष्टि, पर्यायदृष्टि हो जावेगा। अत: पर्याय एवं उसके विषयों का ज्ञान, दृष्टि को हानि नहीं पहुंचा सकता, वरन् उनमें अहंपना ममत्व होना द्रव्यदृष्टि का नाश कर देता है। पर्याय की असमानता अरहंतपने की श्रद्धा में बाधक नहीं
वस्तु तो हर समय द्रव्य पर्यायात्मक ही है। द्रव्य (ध्रुव) तो हर समय एक जैसा ही रहता है और पर्याय हर समय परिणमती रहती है। लेकिन देखने वाला आत्मा को जिस दृष्टि से देखता है दृष्टि के अनुसार ही उस समय आत्मा दिखता है, क्योंकि ज्ञान चक्षु दूसरी और को देखने की बंद रहती है। यह तो ज्ञान का स्वरूप है। जिसमें अपनापन होता है, दृष्टि उसके अनुसार ही वर्तती रहती है।
अज्ञानी को तो द्रव्यदृष्टि की चक्षु खुली ही नहीं हैं; अत: वह तो पर्याय दृष्टिपूर्वक ही आत्मा को देखता है अत: उसको तो आत्मा पर्याय जैसा ही दिखेगा। अरहंत भगवान की पर्याय तो उनके द्रव्य के जैसी ही वर्त रही है, अत: उनको तो अन्तर दिखना संभव ही नहीं है।
अरहन्त की आत्मा के द्रव्य से, गुण से एवं पर्याय से भी समानता को प्राप्त हो गई है, अत: उनके ज्ञान से तो द्रव्यदृष्टि प्रगट हो जाती है। अपनी आत्मा को द्रव्यदृष्टि से देखने पर पर्याय दिखेगी ही नहीं । इसप्रकार से अपनी आत्मा को देखने पर असमानता बाधक नहीं रहती।
पर्याय स्वभाव प्रश्न - हमारी पर्याय को पर कहकर उपेक्षा करने योग्य बताया
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