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( सुखी होने का उपाय भाग - ३
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ही नहीं है तब मेरी कर्तृत्वबुद्धि निरर्थक ही है । ज्ञायक तत्त्व ही एकमात्र शरण योग्य है । - ऐसी श्रद्धा होने से पर एवं पर्यायों के प्रति उपेक्षाभाव जाग्रत होकर, वीतराग परिणति जाग्रत हो जाती है । स्वच्छन्दता को कोई अवकाश नहीं रहता ।
पुरुषार्थहीनता के भय का निराकरण
शंका - इसप्रकार की श्रद्धा से तो पुरुषार्थहीनता का भय लगता
है ?
समाधान- जिस अज्ञानी को पर्याय एवं पर्याय के विषयों के प्रति रुचि एवं आकर्षण के साथ-साथ कर्ताबुद्धि बनी हुई है। ऐसे जीव को पर एवं पर्याय के प्रति उपेक्षाबुद्धि ही प्रगट नहीं होगी वरन् कर्तृत्वबुद्धि सहित आकर्षण बना रहेगा। ऐसा जीव अगर अपनी रुचि का पोषण करने के लिए इस कथन को आधार बनाकर प्रवर्तेगा तो वह जीव तो स्वच्छन्द था ही, लेकिन सच्चा आत्मार्थी तो इस कथन से पर एवं पर्याय के प्रति उदासीन होकर अकर्तास्वभावी स्वआत्मतत्त्व के प्रति विशेष विशेष आकर्षण बढ़ाकर वीतरागता को प्राप्त कर अनन्तकाल सुखी रहने का मार्ग प्रशस्त करेगा ।
पुरुषार्थ की परिभाषा
पुरुषार्थ का अर्थ है, पुरुष - आत्मा उसका प्रयोजन - वह पुरुषार्थ है । पुरुषार्थ वीर्यगुण की पर्याय है, उसका तो हर समय उत्पाद होता ही है । हर एक आत्मा हर समय पुरुषार्थ तो करता ही रहता है। लेकिन आत्मा का प्रयोजन तो वीतरागता अर्थात् निराकुल सुख प्राप्त करना है । जो वीर्य का उत्थान वीतरागता प्राप्त करावे, वहीं सच्चा पुरुषार्थ है । अतः पर्याय स्वभाव को एवं वस्तु व्यवस्था को समझकर, कर्तृत्व के भारी बोझ को हल्का करने में कारण बने वहीं सच्चा पुरुषार्थ है । बाकी जो कुछ पुरुषार्थ के नाम पर समझ रखा है वह सब कुपुरुषार्थ है संसारवृद्धि का कारण होने से आत्मा का अत्यन्त घातक पुरुषार्थ है । संक्षेप में, आत्मा
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