Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 3
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 75
________________ ७४) ( सुखी होने का उपाय भाग-३ द्रव्यार्थिकनय में पर्यायार्थिकनय का विषय अत्यन्त गौण रहता है। द्रव्यदृष्टि में तो पर्यायार्थिकनय का विषय नास्तिरूप ही वर्तता है लेकिन श्रद्धा तो जिसको स्व मानकर अपनापन स्थापित करती है, पूर्ण समर्पित होकर नि:शक रूप से उसको ही अपना मानती है। अपने स्व में किसी भी अन्य का अस्तित्व ही स्वीकार नहीं करती। क्योंकि श्रद्धा गुण की पर्याय में ज्ञान के अनुसार मुख्य गौण की व्यवस्था नहीं है। ___ज्ञानगुण सविकल्प है लेकिन श्रद्धागुण तो निर्विकल्प ही है, अत: उसमें द्वेत का सद्भाव ही नहीं रहता। श्रद्धागुण का स्वभाव ही ऐसा है कि वह तो अपने विषय में नि:शंकता के साथ अहंपना स्थापित करती है। यही कारण है कि आत्मा के समस्त गुण उस श्रद्धा के अनुगामी होकर प्रवर्तन करने लगते हैं। ज्ञानगुण को यह श्रेय प्राप्त नहीं है। उपरोक्त कथन ज्ञानी जीव के ज्ञान-श्रद्धान की अपेक्षा है। अज्ञानी को तो नयज्ञान का उदय ही नहीं हुआ, अत: उसके ज्ञान में तो मुख्यता गौणता का सामर्थ्य ही प्रगट नहीं हुआ है । द्रव्यार्थिकनय का विषय प्रगट हुए बिना द्रव्यदृष्टि प्रगट होने का तो प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। लेकिन अज्ञानी भी नयज्ञान के माध्यम से अपने ज्ञान, श्रद्धान की यथार्थ स्थिति व सामर्थ्य समझ सकता है, रुचि का परिवर्तन कर, अनादि से चली आ रही पर्याय दृष्टि का अभाव करके द्रव्यदृष्टि प्रगट कर सकता है। यही नयज्ञान की उपयोगिता है। पर्यायदृष्टि एवं पर्यायार्थिकनय का अन्तर ज्ञान की जो पर्याय एकरूप रहने वाले अभेद एवं ध्रुव स्वभावी आत्मद्रव्य को छोड़ अभेद में भेद करके भेदों को जानता हुआ अपना विषय बनावे वह पर्यायार्थिकनय है । अथवा अनित्य स्वभावी एक समय की सत्ता धारण करने वाली पर्याय को विषय बनावे अथवा उस पर्याय से संबंधित अन्य पदार्थों को विषय बनावे, वह ज्ञान की पर्याय भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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