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नय एवं दृष्टि का अन्तर )
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पर्यायार्थिकनय है । संक्षेप में कहो तो एकमात्र अभेद ध्रुव स्वभावी आत्मा को छोड़ अन्य किसी को भी विषय बनावे, वह ज्ञान पर्याय पर्यायार्थिकनय है ।
पर्यायार्थिकनय ने जिस किसी भी विषय को विषय बनाया, श्रद्धा गुण उसमें ही अपनापन स्थापन कर लेवे तो श्रद्धागुण की उस पर्याय का नाम पर्यायदृष्टि है।
ज्ञानी को पर्यायार्थिकनय होती है, पर्यायदृष्टि नहीं
ज्ञानी जीव का ज्ञान जब पर्याय का ज्ञान करता है तब उसके ज्ञान में द्रव्यार्थिकनय का विषय भी गौण रहकर वर्तता है । ज्ञानी की श्रद्धा ने द्रव्यार्थिकनय के विषयभूत त्रिकाली ज्ञायक स्वभाव में, निजत्व स्थापन कर लिया है अत: पर्यायार्थिकनय के समय भी उसके, श्रद्धागुण की पर्याय अर्थात् द्रव्यदृष्टि को किंचितमात्र भी बाधा नहीं होती । श्रद्धा तो अपने विषय में निःशंकतापूर्वक अहंपने का कार्य करती ही रहती है अर्थात् द्रव्यदृष्टि बनी ही रहती है । यह तथ्य ही हर एक गुण की स्वाभाविक स्वतंत्रता का स्पष्ट द्योतक है । द्रव्यदृष्टि अक्षुण्ण बनी रहने के कारण, ज्ञान पर्यायार्थिकनय में प्रवर्तित होने पर भी उसके विषयों के प्रति एकताबुद्धि कर्तृत्व भोक्तृत्व एवं स्वामित्व बुद्धि का हर समय अभाव वर्तता रहता है। फलत: निरन्तर उपेक्षा बुद्धि वर्तती रहती है । इसी आधार को लेकर समयसार के निर्जरा अधिकार में कहा है, ज्ञानी का भोगों में उपयोग होते हुए भी उनके प्रति एकत्व नहीं होने के कारण अज्ञानी के समान अनंत संसार का बंध नहीं होता, लेकिन अल्प संसार का बंध तो अवश्य होता है । दृष्टि तो त्रिकाली ज्ञायकतत्त्व में अपना धारण किये हुए है, उसी समय पर्यायार्थिकनय के विषयभूत भोगादि तो ज्ञान में परज्ञेय के रूप में प्रकाशित हो रहे हैं । अत: उनमें एकत्व के अभाव के कारण, अज्ञानी के जैसी मग्नता, गुद्धता नहीं होती, फलतः अनंत संसार का बंध नहीं होता ।
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