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अरहन्त की आत्मा द्वारा अपनी आत्मा को समझना)
(६३ पर्याय से ही होता है द्रव्य से नहीं। दोनों ही पर्यायें अनित्यस्वभावी हैं इसलिए अगर आत्मा यथार्थ मार्ग अपनाकर पुरुषार्थ करे तो भावकर्म उत्पन्न ही नहीं हो, क्योंकि पर्याय तो हर समय नवीन उत्पन्न होती है।
सारांश यह है कि आत्मार्थी को उपरोक्त स्थिति समझकर गुरु उपदेश, जिनवाणी का अध्ययन, सत्समागम तथा चिन्तन-मनन आदि जैसे भी बने वैसे परज्ञेयों में अपनेपने की मान्यता को छोड़कर अपने त्रिकाली ज्ञायक ध्रुवतत्त्व में अपनापन स्थापन करना चाहिए। यही एकमात्र करने योग्य कार्य है। भावकों का कर्ता नहीं मानने से स्वछन्दता का भय
अज्ञानी को अनादि से भावकर्मों का स्वामित्व एवं कर्तत्वपना चला आ रहा है। उनके अभाव करने के लिए प्रथम अपने में अपनापन स्थापन करना पड़ेगा। अपनापन श्रद्धा गुण का कार्य है। त्रिकाली ज्ञायक ध्रुवतत्त्व में अपनापन आते ही, स्वत: पर में अपनापन छूट जाता है। क्योंकि दो में एक साथ अपनापन रह ही नहीं सकता। (कारण एक गुण की दो पर्यायें नहीं हो सकतीं)। सहज रूप से उनमें हेयभाव उत्पन्न हो जाता है। हेयभाव होने से क्रम-क्रम से अशुद्धता घटती जाती है। फलत: संसार अभाव होने की श्रृंखला (परम्परा) प्रारम्भ हो जाती है। इसलिए ऐसे आत्मार्थी को कभी स्वच्छन्दता हो नही सकती।
अज्ञानी कथन का मर्म समझे बिना तथा अपने अन्तर में वीतरागता प्रगट करने का उद्देश्य निर्णीत करे बिना ही रुचि रहित क्षयोपशम ज्ञान से उपदेश का अभिप्राय विपरीत पकड़कर भावकर्मों का कर्तृत्व स्वामित्व छोड़ने के मात्र विकल्प करेगा तो ऐसे अज्ञानी को स्वच्छन्द होने का अवकाश रहता है । लेकिन यह तो अज्ञानी का दोष है, उसे तो अनन्त संसारी रहना था और कथन को विपरीत समझने से भी अनन्त संसारी ही रहेगा; मात्र एक दो भव नरक आदि कुगति में जा सकता है। लेकिन उपरोक्त भय से सत्यार्थ मार्ग का निषेध करने से तो बहुत जीवों का बहुत
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