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अरहन्त की आत्मा द्वारा अपनी आत्मा को समझना )
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उसके अतिरिक्त सब ज्ञेय पर के रूप में भासते रहते हैं । इसप्रकार ज्ञानी को चारित्र की निर्बलता से जो भावकर्म उत्पन्न होते हैं उनको अभाव करने का पुरुषार्थ निरन्तर वर्तता रहता है । इसकारण ज्ञानी को तीव्र राग (अशुभ राग) तो सहज घटता जाता है लेकिन सम्पूर्ण अभाव होने तक शुभ राग में हेय बुद्धि होते हुये भी वह बढ़ता जाता है और अन्त में उस राग का भी अभाव होकर मुक्ति प्राप्त हो जाती है। ज्ञानी को शुभ राग होते हुए भी उपादेय बुद्धि नहीं होती ।
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निष्कर्ष
रुचिपूर्वक उपरोक्त प्रकार के किए गए मन्थन से आत्मार्थी इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि मैं तो एक मात्र ज्ञायक ध्रुवतत्त्व हूँ। मेरा अस्तित्व अनादि, अनन्त है । अत: मेरा तो अस्तित्व ही ज्ञायक स्वभावी है । सिद्ध पर्याय का अस्तित्व तो सादि अनन्त है लेकिन मेरा अस्तित्व तो अनादि अनन्त है। मैं तो सिद्ध स्वभावी हूँ, मुझे भी कुछ प्राप्त करना नहीं रहा। मैं तो स्वयं ही सर्वज्ञ स्वभावी एवं सुख स्वभावी हूँ आदि आदि निर्णयों से नि:शंक होता हुआ संतुष्ट रहता हूँ ।
उक्त निर्णयों के साथ आत्मार्थी जब ज्ञेयों की ओर झांकता है तो उसको सभी पररूप ही भासते हैं, कोई स्व के रूप में भासता ही नहीं । उनके परिणमन स्वतंत्र हो रहे हैं; उनके परिणमनों में मेरा किसीप्रकार भी हस्तक्षेप कर्तृत्व आदि का सम्बन्ध हो ही नहीं सकता, अत: उनमें करने धरने संबंधी विकल्प का अवकाश ही नहीं रहता। इसलिए कर्तृत्व आदि के भार से भी निर्भर हूँ। वे परज्ञेय हैं अतः उनको जानने में मुझे न तो राग है और न द्वेष । इन्द्रियों के विषय भोग आदि के भाव एवं मान प्रतिष्ठा आदि के कृत्रिम भावों में भी आकर्षण निकल जाने से सहज ही लौकिक जीवन में परिवर्तन आ जाता है। परिणति सिमटकर आत्मा की ओर आकर्षित हो जाती है।
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