Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 3
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 69
________________ ६८) ( सुखी होने का उपाय भाग-३ उपसंहार उपरोक्त प्रकरण तो भगवान अरहन्त की आत्मा समझकर अपनी पर्याय समझने के पूर्व की पात्रता का है। जिस आत्मार्थी ने स्वयं अरहन्त बनने का ध्येय बना लिया हो ऐसे आत्मार्थी की रुचि तो उग्र हो ही जाती है, ऐसे आत्मार्थी को दर्शनमोह के नाश का उपाय समझने का पुरुषार्थ जाग्रत हो जाता है। उसकी परिणति निर्भार होकर अपने स्वभाव में जाने के लिए उत्साहवान होकर, शरण प्राप्त करने के लिए छटपटाने लगती है। ऐसे आत्मार्थी को प्रवचनसार गाथा ८० की टीका का मार्ग निश्चित रूप से कार्यकारी होगा। उपरोक्त प्रकरण समझकर आत्मार्थी ने यह निर्णय कर लिया कि अब मैं सबकी ओर से अपनी परिणति को समेटकर निर्भार करता हूँ। त्रिकाली ज्ञायक स्वभाव ही मेरा है, वही ध्रुव है और वही मैं हूँ, वहाँ आनन्द ही आनन्द है, वही आकर्षण का विषय है एवं वही जानने योग्य भी है अत: परिणति उसकी शरण लेने को उत्साहवान हो जाती है। भावकर्म संयोगी भाव हैं। आत्मा पर के साथ संयोग करे तो वे उत्पन्न होते और नष्ट होते रहते हैं। इसलिए वे सब पर हैं । अत: उनको शुद्ध करने की चिन्ता से भी मुक्त हो गया हूँ, परिणति को समेटकर अन्तर्मुखी कर ज्ञायक से सम्मिलन करने को चेष्टित हो गया हूँ। उपरोक्त प्रकार से परिणति सभी आकर्षणों से मुक्त हो निर्भार होकर अपने ज्ञायक स्वभाव का आश्रय ढूढती है और पुरुषार्थ अन्तर्मुखी कार्य करने योग्य हो जाता है। ऐसा निकट भव्य ही प्रवचनसार गाथा ८० में बताये मार्ग को अपनाकर दर्शनमोह के नाश करने का अधिकारी हो सकेगा। उपरोक्त सभी प्रकरणों के द्वारा मार्ग समझकर, अपनी रुचि को अन्तर्मुखी करना ही वास्तविक पात्रता है मात्र समझ लेना नहीं। अत: पात्रता उत्पन्न कर दर्शनमोह के नाश का उपाय करना ही वास्तविक पुरुषार्थ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136