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( सुखी होने का उपाय भाग-३ इसीप्रकार आत्मा के भावों के साथ संबंध रखने वाले द्रव्यकर्म एवं पर्यायों में होने वाले भावकर्म भी विद्यमान हैं, वे भी स्वभाव से विपरीत होने से मेरे नहीं हैं इसलिए पर हैं। द्रव्यकर्म तो पुद्गल द्रव्य की पर्यायें हैं, वे अचेतन होने से आत्मा से भिन्न हैं ही; उनके परिणमनों के वे स्वयं कर्ता-धर्ता हैं। उनका स्वामी अथवा परिवर्तन कराने वाला मैं नहीं हूँ वे क्रमबद्ध अपनी योग्यतानुसार परिणमन करते रहते हैं। उनके परिणमन में भावकर्म निमित्त बनते हैं तो भले बनें; उसमें मेरा कर्तृत्व नहीं है। विकारी पर्याय से भी मेरा स्वपने का संबंध नहीं है। क्योंकि जो पर्याय उत्पन्न हो गई वह तो अपनी योग्यता से व्यय अवश्य हो जावेगी
और जिसका उत्पाद ही नहीं हुआ अथवा जो व्यय हो चुकी है, उसमें तो कुछ होना शक्य ही नहीं है। अत: भावकों के परिवर्तन की चिन्ता भी निरर्थक है। इनके अभाव करने का एक ही उपाय है कि उनमें अपनत्व छोड़कर उनका अपने में संयोग ही नहीं होने दूं तो उनके उत्पादन की श्रृंखला ही टूट जावेगी।
आत्मा अपनी ही पर्याय को पर कैसे माने? ।
प्रश्न -- भावकर्म तो आत्मा की ही पर्याय है, उसको पर कैसे माना जावे?
उत्तर -- पर्याय आत्मा का अंग होते हुए भी वह जब तक स्वभाव से विपरीत परिणमती रहेगी, मेरे परिवार में सम्मिलित नहीं की जा सकती। उक्त पर्याय ने मेरा (ध्रुव का) आश्रय छोड़कर पर का आश्रय कर संयोग कर लिया; और स्वभाव से विपरीत परिणमती है ऐसी पर्याय मेरी नहीं हो सकती। पर्याय को स्वाभाविक परिणमने योग्य बनाने का उपाय यही है कि उसमें अपनत्व छोड़ देना चाहिए। आश्रय विहीन होकर, अगर गुरु उपदेश आदि से सद्बुद्धि प्रगट हो तो जैसे जैसे शुद्धता उत्पन्न करती जावेगी, उतने-उतने अंश में अटूट आनन्द का स्वाद भी उसको प्राप्त होता जावेगा।
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