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( सुखी होने का उपाय भाग-३ अभाव करने का वास्तविक उपाय नहीं समझा जाता। भावकर्म जो उत्पन्न हो गया, उसका तो दूसरे समय व्यय अवश्य हो ही जाता है तो नाश करना रहता ही नहीं और जो उत्पन्न हुए ही नहीं, उनका नाश करने का प्रश्न ही नहीं रहता लेकिन फिर भी उनके उत्पन्न होने की परम्परा समाप्त नहीं होती।
प्रश्न - लेकिन जिनवाणी में तो इनके नाश करने की प्रेरणा दी गई है?
उत्तर - जिनवाणी में स्पष्ट विधान है कि जो संवरपूर्वक निर्जरा होती है, मात्र उसी को मोक्षमार्ग में प्रयोजनभूत अर्थात् कार्यकारी कहा है; और उसी को भावकर्मों का अभाव माना है। इससे स्पष्ट है कि उक्त कथन का अभिप्राय ही यह है कि उनका नवीन उत्पादन रोकना । उस ही का नाम भावकों का अभाव करना है। क्योंकि उत्पन्न हो गये हैं वे तो स्वयं ही व्यय हो जावेंगे लेकिन नवीन उत्पादन बंद हो जाने से उनकी परम्परा नष्ट हो जावेगी। इसप्रकार संवरपूर्वक नाश ही उपादेय है और मोक्षमार्ग का साधक है। अज्ञानी प्राणी उपरोक्त वास्तविक उपाय को ग्रहण नहीं करके जो भावकर्म उत्पन्न हो जाते हैं उनके नाश करने की चेष्टा करता रहता है और ऐसे विकल्पों में ही संलग्न रहता है । फलस्वरूप तीव्र राग से पलटकर मंदराग होकर रह जाता है। इसीप्रकार की परम्परा चलती रहती है और इस ही को वास्तविक मोक्षमार्ग मान लेता है फलत: वास्तविक उपाय से वंचित रह जाता है। वास्तविक उपाय तो भावकों के उत्पादक कारणों का अभाव करना है।
भावकों से छुटकारा कैसे मिले? वास्तव में आत्मा में भावकर्म नवीन तो उत्पन्न हुए नहीं हैं अनादि परम्परा से चले आ रहे हैं साथ ही इस जीव की पररूप अपना अस्तित्व मानने की मिथ्या मान्यता भी अनादि से चलती चली आ रही है। अज्ञानी
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