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अरहन्त की आत्मा द्वारा अपनी आत्मा को समझना ) में भी आत्म स्थिरता के पुरुषार्थ के समय शुभ लेश्या सम्बन्धी भावों का ही सद्भाव रहता है, अशुभ भावों का नहीं। इसलिए ऐसे शुभ भावों को सहचारी एवं साधक कहा जावे तो कोई दोष नहीं है। लेकिन उपरोक्त प्रयोजन के अतिरिक्त अन्य प्रयोजन से किए गए शुभ भावों को तो कारणपने का उपचार भी नहीं आता। जैसे द्रव्यलिंगी मुनिराज को अनन्तानुबन्धी के सद्भाव में किसी भी प्रकार से किए गए शुक्ल लेश्या के परिणाम भी मोक्षमार्ग के लिए साधनभूत नहीं होते। तथा भावलिंगी आचार्य को शिष्यों को प्रायश्चित आदि दण्डात्मक नीति अपनाते समय अशुभ लेश्या के भाव भी मोक्षमार्ग में सहचारी कहे जाते हैं।
तात्पर्य यह है कि आत्मार्थी को मोक्षमार्ग रूपी प्रयोजन सिद्ध करने के पुरुषार्थ में संलग्न रहना चाहिए; ऐसे पुरुषार्थ में सहजरूप से शुभभाव ही होते हैं। शुभ भाव करने के प्रयास में न तो मोक्षमार्ग के लिये उपयोगी शुभ भाव होते हैं और न ऐसे भावों को मोक्षमार्ग सिद्ध करने में कारणपना आता है।
आत्मार्थी की पात्रता जिस आत्मार्थी ने दर्शन मोह के नाश करने के लिये दृढ़ संकल्प किया है ऐसे आत्मार्थी की रुचि की अन्तर्दशा, अज्ञानी की अपेक्षा परिवर्तित हो जाती है। सिद्ध भगवान को प्रगट अतीन्द्रियआनन्द एवं ज्ञान प्राप्त करने के लिये रुचि तीव्र हो जाती है एवं संसार देह तथा भोगों के प्रति उदास सा रहता है। ऐसा आत्मार्थी यथार्थ मार्ग प्राप्त करने का सघन प्रयास करता है।
जब-जब प्रवचनसार ग्रन्थ के ज्ञानतत्त्व प्रज्ञापन अधिकार का अध्ययन करता है तो उसके द्वारा शुद्धोपयोग के प्रसाद से प्राप्त अतीन्द्रिय ज्ञान एवं सुख का विवेचन समझकर उसकी रुचि और भी तीव्र हो जाती है। तत्पश्चात् शुभ परिणाम अधिकार के अन्तर्गत गाथा ८० में वर्णित दर्शन मोह के नाश का उपाय पढ़ने मात्र से ही आत्मार्थी का वीये उछलने
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