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अरहन्त की आत्मा द्वारा अपनी आत्मा को समझना )
(५१ सुखी नहीं हो सकता। जैसे जब तक शत्रु का अंश भी विद्यमान है, तब तक उसके नाश करे बिना चैन नहीं पड़ता। इसीप्रकार रागादि के समूल नष्ट करने का उपाय निरन्तर करते रहना कर्तव्य है।
___ अनादि काल से अज्ञानी जीव ने आत्मा का शत्रु होते हुए भी शुभराग को मित्र मान रखा है। अत: ऐसे अज्ञानी को तो किसी भी प्रकार से, गुरु उपदेश, जिनवाणी अध्ययन एवं सत् समागम आदि से यह समझ में आना चाहिए कि ये राग (शुभ हो या अशुभ) दोनों ही मेरे शत्रु हैं, इनकी मित्रता जब तक रहेगी संसार भ्रमण नहीं मिटेगा। इसलिए ऐसे अज्ञानी को ज्ञानी गुरु प्रथम रागादि भावों में मेरापना मानना छोड़ने का उपदेश देते हैं क्योंकि जब तक रागादि शुभ-अशुभ दोनों को मेरा मानता रहेगा उनका अभाव कैसे करेगा। उनके साथ मेरापना छोड़ते ही वे निराधार हो जाने से स्वयं ही अशुभ से शुभ होते हुए क्रमश: नष्ट हो जावेंगे, निर्जरित हो जायेंगे।
दूसरी अपेक्षा यह भी है कि रागादि भावों का अस्तित्व ध्रुव में तो है नहीं, तथा आत्मा के अनन्त गुणों में से कोई गुण नहीं जो रागादि का उत्पादन कर सके । वे तो एक समयवर्ती अनित्य पर्याय में ही उत्पन्न होते हैं और नष्ट भी हो जाते हैं लेकिन अज्ञानी को उनसे प्रेम-अपनापन होने से उनका नवीन-नवीन उत्पाद होता रहता है।
तात्पर्य यह है कि अज्ञानी को ज्ञानी बनने के लिए प्रथम रागादि विकारी पर्यायों से अपनेपन का संबंध तोड़कर, मात्र अपने त्रिकाली ध्रुव तत्त्व में नि:शंक होकर अपनापन स्थापन करना चाहिए। ध्रुव में अपनापन आते ही रागादि का क्रमश: अभाव होना प्रारम्भ हो जाता है तथा स्वत: ही अनन्तानुबन्धीराग तत्क्षण पलायमान हो जाता है।
जैसे-जैसे आत्मा में स्थिरता बढ़ती जाती है, तत्संबंधी रागादि का उत्पाद भी स्वत: रुक जाता है। वास्तव में यही मोक्षमार्ग है ऐसे भाव शुद्ध भाव ही होते हैं।
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