Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 3
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 55
________________ ५४) ( सुखी होने का उपाय भाग-३ लगता है। ऐसा आत्मार्थी ही गाथा ८० की टीका के प्रथम चरण द्वारा बताई हुई, सरल विधि को पूर्ण रुचि के साथ समझता है, और समझता ही नहीं वरन् तद्नुकूल परिणमन करके दर्शन मोह का नाश करने के लिए वीर्य अन्तर में उल्लसित हो उठता है।। ऐसा आत्मार्थी उक्त टीका के उत्तर चरण में बताई हुई विधि का अन्तर में प्रयोग करके अवश्य सफलता प्राप्त करेगा। इसप्रकार का आत्मार्थीपना जाग्रत हुए बिना अज्ञानी यथार्थ रुचि के अभाव में क्षायोपशमिक ज्ञान के बल से मार्ग को बुद्धिगम्य तो कर लेगा लेकिन अन्तर परिणति में परिणमन नहीं होगा। फलत: स्वयं लाभान्वित नहीं हो सकेगा। सचेतन अचेतन परिकर से परिणति समेटना उपरोक्त अन्तर भावना के साथ-साथ अन्तर में इसप्रकार की श्रद्धा जाग्रत हो कि मेरे ज्ञान में ज्ञात होने वाले सभी ज्ञेय तो हर प्रकार से मेरे से भिन्न हैं। वे सब स्वतंत्र द्रव्य हैं, उनकी अपनी-अपनी स्वतंत्र सत्ता है, वे स्वयं अपना-अपना उत्पाद व्यय करते हुए परिणमते रहते हैं, अत: न तो वे मेरे हैं और न मेरे आधीन ही हैं इसलिए मैं उनमें किसीप्रकार का कुछ भी परिवर्तन नहीं कर सकता। अत: उन पर स्वामित्व मानना अथवा परिवर्तन करने का अभिप्राय तो मिथ्या मान्यता ही है। वे तो मेरे जानने की भी अपेक्षा नहीं रखते और अपनी योग्यतानुसार परिणमन करते ही रहते हैं। मेरे नहीं जानने से उनका कार्य रुकता नहीं और जान लेने से गतिशील नहीं हो जाता आदि-आदि विचारों द्वारा अपनी अन्तर परिणति को ज्ञेय मात्र की ओर से समेटकर आत्मलक्ष्यी करने का पुरुषार्थ करना चाहिए। उपरोक्त प्रकार के ज्ञेयों में समस्त नोकर्म, स्त्री, पुत्रादि, सचेतन परिकर एवं मकान जायदाद मोटर, बंगला, धन आदि अचेतन परिकर जो सभी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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