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भगवान अरहन्त की सर्वज्ञता )
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विपरीतता का उत्तरदायित्व तो श्रद्धा का ही है। श्रद्धा ने पर को स्व मान लिया फलत: चारित्र भी उसी में लीनता करने की चेष्टा करता है लेकिन सफल नहीं होता । फलत: किसी ज्ञेय में इष्टपने की कल्पना कर राग करता रहता है और किसी में अनिष्टपने की कल्पना कर द्वेष करता हुआ दुःखी होता रहता है। तात्पर्य यह है कि पर को जानने से रागादि उत्पन्न नहीं होते वरन् परज्ञेयों को जानते समय मान्यता की विपरीतता से राग और द्वेष उत्पन्न करता है। ज्ञान तो मात्र जानने का कार्य करता है ।
ज्ञान की सर्वज्ञता
ज्ञान तो आत्मा का एक गुण है । गुण-स्वभाव-शक्ति-सामर्थ्य सब एकार्थवाची हैं। हर एक वस्तु का स्वभाव सामर्थ्य तो अमर्यादित होता हैं। किसी में प्रगटता की कमी देखकर, उसको शक्ति की मर्यादा नहीं माना जा सकता । आत्मा के अतिरिक्त विश्व में छह जाति के अनन्तानन्त द्रव्य हैं और सबमें अपने - अपने अनन्त गुण हैं। हर एक वस्तु के हर एक गुण के विकास की सामर्थ्य तो असीमित होती है, जैसे मूर्तिक पुद्गल परमाणु की एक समय में गमन करने की सामर्थ्य १४ राजू को है । जिसका प्रमाण वर्तमान की दूर संचार प्रणाली है, जिसके द्वारा शब्द वर्गणाएँ अत्यल्प काल में लाखों मील दूर पहुँच जाती है। इससे विश्वास करने योग्य है कि वस्तु के शक्ति के विकास की मर्यादा असीमित होती है । उसीप्रकार आत्मा की प्रमेयत्व शक्ति भी अमर्यादित है विश्व की अनन्त आत्माएँ अगर मेरे को अपने ज्ञान का विषय बनावें तो एक ही समय मेरा आत्मा सबका ज्ञेय बन सकता है, अगर ऐसी सामर्थ्य सब द्रव्यों में नहीं होती तो विश्व का कोई पदार्थ किसी के भी ज्ञान का विषय नहीं बन पाता। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक पदार्थ मेरे ज्ञान का विषय बनता है। उपरोक्त सभी द्रष्टान्तों से सिद्ध होता है कि हरएक गुण-शक्ति के विकास की असीमित होती है।
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