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( सुखी होने का उपाय भाग-३ समझकर, अपना वीतरागरूपी प्रयोजन सिद्ध करने में उपयोग किया जा सकता है । अर्थात् जिसके आश्रय से वीतरागता प्राप्त हो, उसको तो 'स्व' के रूप में मानकर, मैंपना (अपनापना) स्थापन कर, उसके अतिरिक्त अन्य जो कुछ भी रह गया हो, उन सबमें सहज ही परपना आ जाना चाहिए। धर्म प्रारम्भ करने के लिए इनकी यथार्थ समझ प्राप्त कर, उस पर निःशंक श्रद्धा उत्पन्न होना ही सबसे पहली सीढ़ी है।
जगत के प्राणी मात्र का ऐसा स्वभाव है कि जिसको अपना मान लेता है, जरा भी संकोच करे बिना उस पर सर्वस्व समर्पण कर देता है। उसीप्रकार आत्मा भी जिसको अपना मान लेता है, उसमें ही पूर्ण पुरुषार्थ के साथ एकत्व कर लेता है । अत: हमको भी अरहन्त बनना है तो सर्वप्रथम स्व एवं पर का स्वरूप समझकर, उनमें स्व किसको माना जावे तथा पर कौन है यह समझना आवश्यक है।
स्व मानने योग्य कौन है ? यह तो समझ चुके हैं कि स्वपने और परपने का विभाजन हमारे 'ध्रुवभाव' एवं 'पर्याय भाव' में ही करना है। अत: दोनों में से, जिसको अपना मानने से वीतरागता रूपी प्रयोजन सिद्ध हो एवं जो नित्य स्वभावी है मात्र वह ही स्व मानने योग्य है । अर्थात् अनादि से अनन्त काल तक जिसने मेरा साथ नहीं छोड़ा है, मात्र वह ही स्व माना जाने योग्य है। लेकिन ध्रुव के साथ ही वर्तने वाला पर्याय भाव, वह तो स्वभाव से ही अनित्य स्वभावी है, हर क्षण बदल जाता है, तथा अनित्य स्वभावी होने से हर समय उत्पाद और व्यय अर्थात् जीवन और मरण करता रहता है। ऐसी पर्याय को मेरा मानने से तो मुझे हर समय जन्म मरण का दुख भोगना पड़ेगा, कभी भी सुख और शान्ति प्राप्त नहीं हो सकती। तथा वह स्वयं रागादि रूप है, उसको अपना मानने से वीतरागता रूपी प्रयोजन कैसे सिद्ध हो सकेगा। अत: वह मेरी मानी जाने योग्य नहीं है।
मार
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