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( सुखी होने का उपाय भाग - ३
अनादि से अनन्त काल तक अपरिवर्तनीय एकसा ही ध्रुव बना रहता है। अपनी-अपनी योग्यतानुसार पर्यायों द्वारा ये शक्तियाँ प्रगट होती रहती हैं । शक्तियों का भण्डार तो अक्षुण्ण ध्रुवयुक्तंसत् बना रहता है। ऐसा है अरहन्त का ध्रुव तत्त्व । स्पष्ट है कि जो शक्तियाँ विकसित होकर उनकी आत्मा में प्रगट हुई हैं वे अनादि से ध्रुव में विद्यमान थीं अर्थात् निगोद से लेकर तिर्यंच, नारकी, देव, मनुष्य सभी पर्यायों में ध्रुव में विद्यमान रहती हुईं अरहन्त सिद्ध दशा होने तक भी चली आ रही हैं और भविष्य में विकसित दशा में भी वैसी की वैसी ही विद्यमान रहेंगी । ध्रुव तो अपरिवर्तनीय ही रहता है। संसार दशा में उनकी पर्याय के प्रगटीकरण में जो अन्तर था; वह उनकी आत्मा ने यथार्थ पुरुषार्थ के द्वारा नष्ट कर दिया, अतः वह पर्याय भी ध्रुव के समान हो गई अर्थात् जो शक्तियाँ ध्रुव में विद्यमान थीं, वे सब अब पूर्ण विकसित होकर ध्रुव के समान हो जाने से पूरा का पूरा आत्मा ही द्रव्य-गुण- पर्याय से एक सरीखा होकर परमात्मा
बन गया ।
इसप्रकार भगवान अरहन्त को द्रव्य-गुण- पर्याय से समझना ही अपने ध्रुव को पहिचानने की विधि है ।
उपरोक्त स्थिति समझने पर हमको हमारे आत्मा के ध्रुव की स्थिति भी स्पष्ट समझ में आ जाती है। इस कथन से ऐसा नहीं समझ लेना चाहिए कि ध्रुव की सत्ता भिन्न है तथा गुणों और पर्यायों की सत्ता अलग है । तीनों अभिन्न वर्तते हैं । एक सत् को ही समझाने के लिए उनको भिन्न-भिन्न करके मात्र समझाया जाता है । गुणों के समूह को ही द्रव्य कहा है और गुणों के ही परिणमन को पर्याय बताया है । अतः तीनों भिन्न-भिन्न रहते हुए भी अभिन्न हैं और एक ही सत् के अंग हैं ।
जगत में जितने भी जीवद्रव्य (आत्मा) है वे सब एक ही जैसे हैं 1 जो आत्मा परमात्मा बन गये अथवा बनने वाले हैं, उनकी कोई अलग जातियाँ नहीं हैं । सभी 'सत्द्रव्यलक्षणं' के अनुसार सत् हैं और 'उत्पादव्यय
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