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अरहन्त की आत्मा द्वारा अपनी आत्मा को समझना)
(४७ दीन हीन मानता हुआ रिक्शा चलाकर पेट पूर्ति करता फिरता है। दूसरी ओर उसका पिता उसके वियोग में कष्ट पाता हुआ अपनी करोड़ों की सम्पत्ति का उत्तराधिकारी अपने खोए हुए पुत्र को घोषित करके उसे बैंक में जमा करा देता है एवं अपने पुत्र का फोटो देकर बैंकाधिकारी को अधिकृत कर जाता है कि समाचार पत्रों आदि के द्वारा तलाश कर वह राशि मेरे पुत्र को संभला देवें, मेरे पुत्र की फोटो से उसकी पहिचान कर लेवें आदि आदि। तत्पश्चात् धनिक सेठ के पुत्र को किसीप्रकार उक्त प्रकरण की जानकारी प्राप्त हो जावे अर्थात् नि:संदेह श्रद्धा हो जावे कि अरे 'मैं तो स्वयं बहुत बड़ा करोड़पति सेठे हूँ, दीन हीन दरिद्र रिक्शा चालक नहीं हूँ।' उसके बाद विचार करें कि उसका आकर्षण का केन्द्र क्या होगा? सर्वप्रथम जब उसको श्रद्धा हो गई कि मैं तो बड़ा सेठ हूँ, उस श्रद्धा के बल में उसका मेरापना मात्र एक बैंक में पड़ी हुई निधि में हो जाता है। रिक्शे आदि चलाते हुए भी उनमें मेराफ्ना छूट जाता है। जिसमें अपनापन उत्पन्न हो गया, सहबरूप से उसकी सम्पूर्ण सामर्थ्य उस को ही प्राप्त करने में लग जाती है। ऐसा सामान्य स्वभाव है।
उसीप्रकार जब आत्मार्थी को यह श्रद्धा जाग्रत हो जावे कि अरहन्त को आत्मा के जैसी और जितनी ही सामर्थ्य मेरे ध्रुव में विद्यमान है तो अपनापन स्वपना सहब ही अपने ध्रुव में अर्थात् अपने आत्मा में जाग्रत हो जावेगा। ऐसी श्रद्धा जाग्रत होते ही आत्मा के अनन्त गुण भी अपनी-अपनी योग्यतासे अपनी सामर्थ्योसहित आत्माकीओर कार्यशील हो जावेंगे। इसप्रकार उक्त निर्णय से आत्मार्थी को दीन हीन मानने की मिथ्या मान्यता समाप्त होकर सम्यक् श्रद्धा हो जावेगी और मानने लगेगा कि मैं तो भगवान हूँ ऐसी मान्यता (श्रद्धा) होते ही आत्मा के सर्वगुणों में भी सम्यक्ता आ जाती है, इसी को आगम में 'सर्व गुणांश लह सम्यक्' कहा गया है। ऐसा होते ही ज्ञान भी सम्यक् हेकर सम्बार होकर
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