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भगवान अरहन्त की सर्वज्ञता )
( ३३ अंश भी दर्पण में नहीं आया अत: दिखने वाले पदार्थों के प्रतिबिंब, दर्पण ही हैं, पदार्थ नहीं।
इसीप्रकार आत्मा की ज्ञान पर्याय में भी ज्ञेय पदार्थ आ नहीं जाते और न आत्मा भी ज्ञेयों को जानने के लिये उनके समीप जाता है। दोनों अपने-अपने क्षेत्रों में विद्यमान रहते हुए भी, ज्ञानपर्याय का ऐसा ही एक अचिंत्य स्वभाव है कि वह पर्याय स्वयं ही अपनी योग्यता से उन ज्ञेयों के आकार हो जाती है। लेकिन ज्ञेय लुब्धप्राणियों को, ज्ञान के ज्ञेयाकार जानने में आते हुए भी वे तो नहींवत् गौण हो जाते हैं और मात्र ज्ञेय ही दिखने लगते हैं। यथार्थत: ज्ञेयों का तो एक अंश मात्र भी वहाँ नहीं आया है चक्षु के दृष्टान्तानुसार । चक्षु के द्वारा ज्ञात होने वाले पदार्थ, चक्षु से अत्यन्त दूर रहते हुए भी, तथा उनका एक अंश भी चक्षु में नहीं आने पर भी, वे पदार्थ चक्षु में आ ही गये हों, ऐसा चक्षु के बीच की कणिका (पुतली) में स्पष्ट दिखने लगता है। लेकिन उन पदार्थों का तो एक अंश भी चक्षु तक नहीं पहुंचा, चक्षु के परमाणु स्वयं ही उन पदार्थों के आकार परिणम गये हैं पदार्थ नहीं। जिनकी चक्षु की पुतली पर मोतियाबिन्दु आ जाता है, उनकी पुतली में वस्तुओं के आकारों के प्रतिबिंब नहीं पड़ते, फलत: वे वस्तुयें विद्यमान होते हुए भी उस व्यक्ति को नहीं दीखती। इसीप्रकार ज्ञान भी ज्ञेय से अत्यन्त दूर रहकर भी, ज्ञेयों के ज्ञान के समय स्वयं अपनी योग्यता से उन ज्ञेयों के आकार परिणमता है उसमें ज्ञेयों का एक अंश भी नहीं है।
ज्ञान ही उन ज्ञेयों के आकार हो जाने से ऐसा कह दिया जाता है कि ज्ञेयों का ज्ञान आत्मा ने किया। यथार्थत: तो वे ज्ञेयाकार स्वयं ज्ञानाकार ही हैं ज्ञेयाकार कहना तो उपचार कथन है, जो ज्ञेयों के उपचार करने मात्र से उत्पन्न होता है। अन्यथा ज्ञेय तो परद्रव्य हैं, आत्मा से उन ज्ञेयों का क्या-क्यों और कैसे संबंध हो सकता है। निमित्त मात्र देखकर उपचार से ज्ञेयाकार कह दिया जाता है। यथार्थत: वे ज्ञानाकार आत्मा ही
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