Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 3
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 33
________________ 1 ३२ ) ( सुखी होने का उपाय भाग - ३ स्वप्रकाशक ज्ञान कभी मुख्य नहीं होता । अतः उसका उस ओर लक्ष्य ही नहीं जाता इसलिए स्व का ज्ञान होता हुवा दिखाई नहीं देता । हम छद्मस्थ जीवों के क्षयोपशम ज्ञान की इतनी कमजोरी है कि दोनों का एकसाथ ज्ञान होता हुआ ज्ञात नहीं हो सकता। इस कारण सभी ज्ञेयों को हमारा ज्ञान मुख्य गौण करके ही जान सकता है । अत: मुख्य का ज्ञान होता हुआ दिखता है एवं गौण का ज्ञान रहने पर भी नहींवत् बना रहता है । इसप्रकार ऐसा निर्णय में आता है कि सबका ज्ञान स्वसन्मुखतापूर्वक ही पर को जानता है । प्रश्न परज्ञेय अपने-अपने स्वक्षेत्र में विद्यमान हैं उनका ज्ञान आत्मा, अपने ही स्वक्षेत्र में रहते हुए कैसे कर लेगा ? - उत्तर जिसप्रकार दर्पण अपने स्वक्षेत्र में रहते हुए ही, अपने से दूरवर्ती क्षेत्रों में विद्यमान अनेक पदार्थों को, समीप हुए बिना ही, प्रतिबिम्बित करता है । उसीप्रकार आत्मा का ज्ञान भी, अपने स्वक्षेत्र में रहते हुए ही, अपने द्रव्य से भिन्न, क्षेत्र से भिन्न, काल से भिन्न एवं भाव से भी भिन्न, ऐसे समस्त ज्ञेय पदार्थों से दूर रहकर भी वे पदार्थ ज्ञान में घुस गये हों, इसप्रकार जनाने लगते हैं। प्रश्न :- ऐसा कैसे संभव है ? - उत्तर : जिसप्रकार दर्पण के सन्मुख वाले पदार्थ तो जहाँ के तहाँ ही बने रहते हैं, फिर भी दर्पण के परमाणु ही स्वयं, उन पदार्थों के आकार परिणमित हो जाते हैं, इससे ऐसा लगने लगता है कि वे पदार्थ ही दर्पण में घुस गये हों। लेकिन पदार्थों का तो अंश मात्र भी दर्पण में नहीं आया । यथार्थतः पदार्थ तो दर्पण में नहीं दीखें हैं, वरन् उन पदार्थों के आकार परिणत दर्पण के परमाणु ही दिखाई दे रहे हैं । दर्पण के परमाणु पदार्थों जैसे हो जाने से, हम पदार्थों को जानने के लोभी व्यक्तियों की दृष्टि में पदार्थाकार परिणत दर्पण गौण होकर नहींवत् हो जाता है और वे पदार्थ ही दिखाई देते हुए दिखने लगते हैं । यथार्थतः तो पदार्थों का एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136