Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 3
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 12
________________ ( ११ अपनी बात ) इस पुस्तक के भाग ४ में " यथार्थ निर्णय के द्वारा सविकल्प आत्मज्ञान प्राप्त करने की विधि की एवम् सविकल्प आत्मज्ञान पूर्वक निर्विकल्प आत्मानुभूति कैसे प्राप्त होती है इस पर चर्चा होगी - इसप्रकार का संकल्प है 1 अतः मुझे पूर्ण विश्वास है कि इस पुस्तिका में प्रकाशित मार्ग ही संसार में भटकते प्राणी को संसार भ्रमण से छुटकारा प्राप्त कराने का यथार्थ मार्ग है । मैं स्वयं अनादिकाल से भटकता हुआ दिग्भ्रमित प्राणी था, यथार्थ मार्ग प्राप्त करने के लिये दर-दर की ठोकरें खाता फिरता था, सबही अपने चिंतन को सच्चा मार्ग कहते थे लेकिन किसी के पास रंचमात्र भी शांति प्राप्त करने का मार्ग नहीं था । ऐसी कठिन परिस्थितियों में, मेरे सद्भाग्य का उदय हुआ और न जाने कहाँ-कहाँ भटकता हुआ सन् १९४३ में मेरे भाग्ययोग से प्रातः स्मरणीय महान् उपकारी पूज्य श्री कानजीस्वामी का समागम प्राप्त हो गया, कुछ वर्षों तक तो उनके बताये मार्ग पर भी पूर्ण निःशंकता प्राप्त नहीं हुई तब तक भी इधर-उधर भटकता रहा । अन्ततोगत्वा सबही तरह से परीक्षा कर यह दृढ़ निश्चय हो गया कि आत्मा को शांति प्राप्त करने का मार्ग अगर कोई हो सकता है तो मात्र एक यही है अन्य कोई मार्ग नहीं हो सकता ? ऐसे विश्वास एवं पूर्ण समर्पणता के साथ उनके सत्समागम का लाभ उठाने का प्रयत्न करता रहा फलत: जो कुछ भी मुझे प्राप्त हुआ उसमें जो कुछ भी है वह सबका सब अकेले पूज्य गुरुदेव श्री कानजीस्वामी का ही है। वे तो सद्ज्ञान के भंडार थे, आत्मानुभवी महापुरूष थे उनकी वाणी का एक-एक शब्द गहन गंभीर एवं सूक्ष्म रहस्यों से भरा हुआ अमृत तुल्य होता था उनमें से अगर किसी विषय के ग्रहण करने, समझने में मैंने भूल की हो और उसके कारण इस लेखमाला में भी भूल हुई हो, तो वह सब मेरी बुद्धि का ही दोष है और जो कुछ भी यथार्थ है वह सब पूज्य श्री स्वामीजी की ही देन है उनकी उपस्थिति में भी एवं स्वर्गवास के पश्चात् भी जैसे-जैसे मैं जिनवाणी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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