Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 3
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 25
________________ २४ ) ( सुखी होने का उपाय भाग - ३ है । अतः आत्मार्थी को जैसे भी बने वैसे भगवान अरहंत की आत्मा के स्वरूप को समझना पड़ेगा । जिसप्रकार स्वर्ण को गुणों के माध्यम से ही मिश्रित स्वर्ण में भी पहिचाना जाता है, उसीप्रकार आत्मा को भी उसके गुणों के माध्यम से ही पहिचाना जा सकता है। क्योंकि गुण तो त्रिकाल शुद्ध ही रहते हैं और गुणों का धारक ही द्रव्य होता है। इसलिये द्रव्य की वर्तमान दशा (पर्याय) भी उन गुणों जैसी ही होनी चाहिये । द्रव्य गुण पर्याय तीनों एक सरीखे होना ही द्रव्य का यथार्थ स्वरूप है । जैसे स्वर्ण के गुण, जैसे शुद्ध थे वैसे ही पर्याय में प्रगट हों, उसी स्वर्ण को सौ टंच का शुद्ध स्वर्ण कहा जाता है। इसीप्रकार भगवान् अरहंत की वर्तमान दशा में भी समस्त गुण जैसे द्रव्य में थे वैसे ही पर्याय में प्रगट हो चुके अत: उसको ही शुद्ध आत्मा कहा जाता है 1 इसप्रकार यह सिद्ध हुआ कि जिसप्रकार मिश्रित स्वर्ण में शुद्ध स्वर्ण पहचानने के लिये शुद्ध स्वर्ण का ज्ञान ही कार्यकारी सिद्ध होता है । उसीप्रकार मिश्रित दशा अर्थात विकारी दशा युक्त हमारी आत्मा के यथार्थस्वरूप को समझने के लिए हमको भी शुद्ध स्वर्ण के समान, भगवान अरहंत की आत्मा को द्रव्य गुणों के माध्यम से समझने से ही हम अपने आत्मस्वरूप की पहिचान कर सकेंगे । अरहंत की आत्मा और हमारी आत्मा में अन्तर कहाँ है ? भगवान् अरहंत की आत्मा में जिस-जिसप्रकार के जितने भी गुण हैं, जगत् की हर एक आत्मा में चाहे वह आत्मा कहीं भी हो वैसे के वैसे ही और उतने के उतने ही गुण, हर समय विद्यमान ध्रुव रहते हैं, जैसे स्वर्ण कहीं भी किसी भी दशा में रहे, स्वर्ण के गुण तो जैसे के तैसे ही और उतने के उतने ही हरसमय उसमें ध्रुव बने रहते हैं, उन्हीं से शुद्ध स्वर्ण सब दशाओं में भी पहिचान लिया जाता है । इसीप्रकार हरएक आत्मा में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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