Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 3
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 30
________________ ( २९ भगवान अरहन्त की सर्वज्ञता) मंगलमय मंगलकरण वीतराग विज्ञान । नमों ताहि जाते भये अरहंतादि महान । समस्त जिनवाणी में भगवान अरहंत की महिमा सर्वज्ञता और वीतरागता के कारण ही गाई गई है। अत: हमको भी उपर्युक्त दोनों गुणों को मुख्य बनाकर उनकी आत्मा को समझना है । __अरहंत का ज्ञान ज्ञान के माध्यम से अरहंत की आत्मा को समझना है। पण्डित . दौलतरामजी ने स्तुति में कहा है कि भगवान अरहंत का ज्ञान कैसा होकर वर्तता है : “सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि, निजानंद रसलीन" सहज ही प्रश्न उठता है कि हम थोड़े से ज्ञेयों के जानने वाले तो निरन्तर दुःखी दिखते हैं, तो भगवान सकल ज्ञेयों को जानने पर भी कैसे सुखी हो सकते हैं ? अत: हमको उनके जानने की प्रक्रिया को समझना पड़ेगा। यह तो अनुभव है कि हर एक आत्मा का असाधारण स्वभाव जानना है । चाहे वह अरहंत का आत्मा हो चाहे निगोदिया जीव का और चाहे हमारा आत्मा हो, सभी में जानने का कार्य तो होता ही रहता है। यह भी ज्ञात है कि जानने की प्रक्रिया भी ऐसी है कि वह स्व को जानते हुए ही पर को भी जानता है जैसे जब भी मुझे क्रोध आता है, तब अंतर से ऐसी ध्वनि निकलती है कि मुझे क्रोध आया। इससे सिद्ध होता है लि हर एक आत्मा को क्रोध के ज्ञान के साथ ही अपने आप के अस्तित्व का ज्ञान अव्यक्तरूप से आता ही है। आगम भी ज्ञान का स्वभाव स्व-पर प्रकाशक ही बताता है। ज्ञानी स्व में अपनापन होने से स्व को मुख्य रखते हुए जानता है, अज्ञानी पर में अपनापन होने से पर को मुख्य रखते हुए जानता है। जो मुख्य होता है, उस ही का ज्ञान होता हुआ दिखने लगता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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