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( सुखी होने का उपाय भाग - ३
- अतीत काल में क्रमशः हुए समस्त तीर्थंकर भगवान, प्रकारान्तर का असंभव होने से जिसमें द्वैत संभव नहीं है, ऐसे इसी एक प्रकार से कर्मांशों का क्षय स्वयं अनुभव करके ।”
१८ )
'अर्थ
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इस प्रकार हम देखते हैं कि “ जिस विधि के लिए कुंदकुंदाचार्यदेव ने इस गाथा में संकेत किया है उसी विधि पर आचार्य अमृतचंद्र देव ने भी बहुत महत्व दिया है । "
उपर्युक्त कथन से सिद्ध होता है कि दोनों आचार्य महाराज ने जिस विधि की ओर संकेत किया है, वह ही अरहंत बनने का एकमात्र उपाय है । अत: जिस पात्र जीव को अरहंत बनने की जिज्ञासा जाग्रत हुई है उसको तो “वह विधि” पूर्णरूप से समझकर, निर्णय में लाकर, श्रद्धा में दृढ़ता के साथ बिठाकर, सब तरफ से अपनी परिणति को समेटकर, पूर्ण रुचि एवं पुरुषार्थ के साथ एक मात्र उस ही मार्ग पर आरूढ हो जाना चाहिए, यही एकमात्र आत्मज्ञता प्राप्त कर, संसार का अभाव करके भगवान बनने का उपाय है।
आचार्य अमृतचंद्र देव तो इसी गाथा की टीका में कहते हैं कि “इसलिये निर्वाण का अन्य कोई मार्ग नहीं है ऐसा निश्चित होता है । अधिक प्रलाप से बस होओ। मेरी मति व्यवस्थित हो गई है । "
उपर्युक्त कथन के माध्यम से सहज ही तीव्र जिज्ञासा खड़ी होती है कि "वह विधि” क्या है, जिसकी ओर आचार्यों ने इतनी दृढ़तापूर्वक संकेत किया है।
अत: गाथा ८० एवं ८१ निम्नप्रकार है :
जो जाणदि अरहंतं
दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं ।
सो जादि अप्पाणं मोहो खलुजादि तस्स लयं ॥ ८० ॥ जीवो ववगदमोहो उवलद्धो तच्चमप्पणो सम्मं । जहदि जदि रागदोसे सो अण्णाणं लहदि सुद्धं ॥ ८१ ॥
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