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कज्जोवगा दो कब्बडगा दो अयकरगा दो दुंदुभगा दो संखा दो संखवन्ना दो संखवन्नाभा दो कंसा दो कंसवन्ना दो कंसवन्नाभा दो रुप्पी दो रुप्पाभासा दो णीला दो णीलोभासा दो भासा दो भासरासी दो तिला दो तिलपुप्फवण्णा दो दगा दो दगपंचवन्ना दो काका दो कक्कंधा दो इंदुग्गीवा दो धूमकेऊ दो हरी दो पिंगला दो बुद्धा दो सुक्का दो बहस्त दो राहू दो अगत्थी दो माणवगा दो कासा दो फासा दो धुरा दो पमुहा दो वियडा दो विसंधी दो नियल्ला दो पल्ला दो जडियाइलगा दो अरुणा दो अग्गिल्ला दो काला दो महाकालगा दो सोत्थिया दो सोवत्थिया दो वद्धमाणगा दो पेससमाणगा दो अंकुसा दो पलंबा दो निच्चालोगा दो णिचुज्जोता दो सयंपभा दो ओभासा दो सेयंकरा दो खेमंकरा दो आभंकरा दो पभंकरा दो अपराजिता दो अरया दो असोगा दो विगतसोगा दो विमला दो वितत्ता दो वितत्था दो विसाला दो साला दो सुव्वता दो अणियट्टा दो एगजडी दो दुजडी दो करकरिगा दो रायग्गला दो पुप्फकेतू दो भावकेऊ । (सू० ९० )
'जंबुद्दीवे' इत्यादि सूत्रद्वयं, 'पभासिंसु व'त्ति प्रभासितवन्तौ वा प्रकाशनीयमेवं प्रभासयतः प्रभासयिष्यतः, चन्द्रयोश्च सौम्यदीप्तिकत्वात् प्रभासनमात्रमुक्तम्, आदित्ययोश्च खररश्मित्वात्तापितवन्तौ वा एवं तापयतस्तापयिष्यत इति वस्तुनस्तापनमुक्तम्, अनेन कालत्रयप्रकाशनभणनेन सर्वकालं चन्द्रादीनां भावानामस्तित्वमुक्तम्, अत एव चोच्यते'न कदाचिदनीदृशं जगदिति, न वा विद्यमानस्य जगतः कर्त्ता कल्पयितुं युक्तः, अप्रमाणकत्वात्, अथ यत्सन्निवे१ नेमे संख्यया तद्दर्शक पाठेन च संवदत इति नाङ्कनीये.
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