Book Title: Sthanangsutram Part 01
Author(s): Abhaydevsuri, 
Publisher: Agamoday Samiti

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Page 440
________________ श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ २१९ ॥ च लोभस्य अनन्तानुबन्ध्यादितद्भेदवतां जीवानां क्रमेण दृढहीनहीनतरहीन तमानुबन्धत्वात्, तथाहि -कृमिरागरक्तं वस्त्रं दग्धमपि न रागानुबन्धं मुञ्चति, तद्द्भस्मनोऽपि रक्तत्वाद्, एवं यो मृतोऽपि लोभानुबन्धं न मुञ्चति तस्याभिधी| यते लोभः कृमिरागरक्तवस्त्रसमानोऽनन्तानुबन्धी चेति, एवं सर्वत्र भावना कार्येति, फलसूत्रं स्पष्टम्, इह कषायप्ररूपणागाथा: - “ जलरेणुपुढविपब्वयराईसरिसो चउव्विहो कोहो । तिणिसलया कठ्ठद्वियसेलत्थंभोवमो माणो ॥ १ ॥ मायाऽवलेहिगोमुत्तिमेंढसिंगघणवंसिमूलसमा । लोभो हलिद्दखंजणकद्दमकिमिरागसारिच्छो ॥ २ ॥ पक्खचडमासवच्छरजावज्जीवाणुगामिणो कमसो । देवनरतिरियनारयगइसाहणहेयवो भणिया ॥ ३ ॥” इति ॥ अनन्तरं कषायाः प्ररूपिताः, कषायैश्च संसारो भवतीति संसारस्वरूपमाह - चउव्विद्दे संसारे पं० तं० — णेरतियसंसारे जाव देवसंसारे । चउब्विहे आउते पं० तं० - रतिआडते जाव देवाउते । चडव्विहे भवे पं० तं०—नेरतियभवे जाव देवभवे ( सू० २९४) चउव्विहे आहारे पं० तं० – असणे पाणे खाइ साइमे । चउव्विहे आहारे पं० तं० – उवक्खरसंपन्ने उवक्खडसंपन्ने सभावसंपन्ने परिजुसियसंपन्ने ( सू० २९५ ) 'चव' इत्यादि व्यक्तं, किन्तु संसरणं संसार:- मनुष्यादिपर्यायान्नारकादिपर्यायगमनमिति, नैरयिकप्रायोग्येष्वा १ जलरेणुपृथ्वी पर्वतराजी सदृशश्वतुर्विधः क्रोधः तिनिशलता काष्ठास्थि कशैलस्तम्भोपमो मानः ॥ १ ॥ मायावलेखिकागो मूत्रैड कश्टङ्गघनवंशमूलसमा लोभो हरिद्रा खंजनकर्द्दम कृमिरागसदृशः ॥ २ ॥ पक्षचतुर्मास संवत्सर यावज्जीवानुगामिनः क्रमशः देवनरतिर्यभारकगतिसाधनहेतवी भणिताः ॥ ३ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only ४ स्थाना० उद्देशः २ संसारादि सू० २९४ आहार: २९५ ॥ २१९ ॥ www.jainelibrary.org

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