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श्रीस्थानागसूत्रवृत्तिः
२ स्थानकाध्ययने उद्देशः ३ चन्द्रादित्य नक्षत्रादिस्वरूपं
॥७७॥
धिनी ऋद्धिर्दष्षमसुषमैव, शेषं तथैव, अधीयते च-"मणुयाण पुवकोडी आउं पंचुस्सिया धणुसयाई । दसमसुसमाणुभावं अणुहोति णरा निययकालं ॥१॥” इति । 'जंबूद्दीवे' इत्यादि, 'छविहंपित्ति सुषमसुषमादिकं उत्सर्पिण्यवसर्पिणीरूपमिति । अनन्तरं जम्बूद्वीपे काललक्षणद्रव्यपर्यायविशेषा उक्ताः, अधुना तु जम्बूद्वीप एव कालपदार्थव्यञ्जकानां ज्योतिषां द्विस्थानकानुपातेन प्ररूपणामाह
जंबुद्दीवे दीवे दो चंदा पभासिसु वा पभासंति वा पभासिस्संति वा, दो सूरिआ तविंसु वा तवंति वा तविस्संति वा, दो कत्तिया, दो रोहिणीओ, दो मगसिराओ, दो अदाओ, एवं भाणियव्वं, "कत्तिय रोहिणि मंगसिर अंदा य पुणेव्वसू अपूसो य । तत्तोऽवि अस्सलेसा महा य दो फेन्गुणीओ य ॥ १॥ हत्थो चित्तों "साई, विसाही तय होति अणुराहा । जेट्टी' मूलो पुम्बा य आसाढा उत्तरी चेव ॥ २॥ अभिईसवणधर्णिही सयभिसया दो य होंति भेदेवयों। रेवति अस्सिणि भैरणी नेतव्वा आणुपुव्वीए ॥ ३॥ एवं गाहाणुसारेणं णेयव्वं जाव दो भरणीओ । दो अग्गी दो पयावती दो सोमा दो रुद्दा दो अदिती दो बहस्सती दो सप्पी दो पीती दो भगा दो अजमा दो सविता दो तट्ठा दो वाऊ दो इंदग्गी दो मित्ता दो इंदा दो निरती दो आऊ दो विस्सा दो बम्हा दो विण्हू दो वसू दो वरुणा दो अया दो विविद्धी दो पुस्सा दो अस्सा दो यमा । दो इंगालगा दो वियालगा दो लोहितक्खा दो सणिच्चरा दो आहुणिया दो पाहुणिया दो कणा दो कणगा दो कणकणगा दो कणगविताणगा दो कणगसंताणगा दो सोमा दो सहिया दो आसासणा दो १ मनुजानां पूर्वकोव्यायुः पंचधनुःशतोच्छूितानि । दुष्पमसुषमानुभावमनुभवंति नरा नियतकाले ॥१॥
॥७७॥
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