Book Title: Sramana 2013 04
Author(s): Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 13
________________ 6 : श्रमण, वर्ष 64, अंक 2 / अप्रैल-जून 2013 समग्र जीवन में वह पैठ गई थी। राजागण प्राय: आखेट-प्रिय होते थे किन्तु कृष्ण के जीवन में शिकार खेलने का एक भी प्रसंग नहीं मिलता, इससे भी उनके अहिंसक होने का पता चल जाता है। वासुदेव होने के कारण उन्हें ३६० संग्राम करने पड़ते थे,२० पर वे युद्धप्रेमी नहीं थे। वे सदा ही युद्ध को टालने का प्रयास करते रहे हैं। महाभारत का युद्ध रोकने के लिए अपने ही अधीनस्थ राजाओं (कौरवों) के पास अपने ही अधीनस्थ राजाओं (पाण्डवों) का शान्तिदूत बनकर जाना यह प्रमाणित करता है कि वे युद्ध को टालने का भरसक प्रयास करते थे। वे शाकाहार के समर्थक थे, उनके जीवन में कहीं भी मांसाहार का उल्लेख नहीं मिलता। उन्होंने अनेक सुन्दरियों के साथ विवाह अवश्य किया, पर वे भोग को श्रेष्ठ नहीं मानते थे। उन्होंने अपने पुत्रों, पुत्रबधुओं, धर्मपत्नियों आदि को संयम-मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। नागरिकों में से जो कोई भी प्रभु के चरणों में दीक्षित होता था उसे वे पूर्ण सहायता प्रदान करते थे इतना ही नहीं दीक्षार्थियों के द्वारा दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् घर में रहे हुए शेष पारिवारिक जनों के भरण-पोषण का भी वे पूर्ण ध्यान रखते थे।२९ वे पूर्ण गुणानुरागी थे। दर्गणों की तरफ ध्यान जाता ही नहीं था। उन्होंने मृत श्वान के शरीर में से निकलती दुर्गन्ध एवं उसकी कुरूपता की तरफ ध्यान न देकर उसकी मनोहारिणी दंतपंक्ति की प्रशंसा की थी।२२ वे तीन खण्ड के अधिपति होकर भी एक वृद्ध की सहायता स्वयं ईंट उठाकर करते हैं। वे उत्कृष्ट मातृभक्त हैं अत: अपने दिन का प्रारम्भ माँ के चरणों में वन्दना करके ही करते हैं।२३ अंग-आगमों में श्रीकृष्ण का वैशिष्ट्य- जैन अंग-ग्रन्थों की संख्या बारह है। बारहवां अंगसूत्र ‘दृष्टिवाद' लुप्त है तथा शेष ग्यारह अंग- (१) आचारांग, (२) सूत्रकृतांग, (३) स्थानांग, (४) समवायांग, (५) व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती), (६) ज्ञाताधर्मकथा, (७) उपासकदशा, (८) अन्तकृद्दशा, ९ अनुत्तरौपपातिकदशा, (१०) प्रश्नव्याकरण और (११) विपाकसूत्र, वर्तमान में उपलब्ध हैं।२४ उपलब्ध जैन अंगआगमों में से स्थानांग, समवायांग, नायाधम्मकहाओ, अन्तकृद्दशांग तथा प्रश्नव्याकरणसूत्र में कृष्ण वासुदेव के जीवन की विशेषताओं का कम या अधिक मात्रा में विवेचन उपलब्ध होता है। उपलब्ध अंग-ग्रन्थों में कृष्णचरित्र का विवेचन क्रमबद्ध न होकर विशृंखल रूप में हुआ है। किन्तु परवर्ती साहित्य त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, चउपन्नमहापुरिसचरियं, वसुदेवहिण्डी, हरिवंशपुराण, भवभावना आदि ग्रंथों में वह विस्तृत एवं क्रमबद्ध रूपेण विवेचित हुआ है। जैनागम में कृष्ण का उल्लेख प्राय: अन्य किसी आख्यान के विवेचन के प्रसंग में आया है, वे किसी अध्याय-विशेष के मुख्यपात्र नहीं हैं। किन्तु

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