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42 : श्रमण, वर्ष 64, अंक 2 / अप्रैल-जून 2013 मन:पर्ययज्ञानी उनके अनन्तवें भाग अर्थात् मन रूप बने हुए पुद्गलों को मानुषोत्तर क्षेत्र के अन्दर जान सकता है। मन का साक्षात्कार कर उसमें चिन्तित अर्थ को अनुमान से जानता है। ऐसा मानने पर मन द्वारा सोचे गये मूर्त-अमूर्त सभी द्रव्यों को जान सकता है। उपर्युक्त दो कारणों से द्वितीय मत का पक्ष अधिक मजबूत होने से मन:पर्ययज्ञान का विषय द्रव्यमान को मानना अधिक तर्कसंगत है। इसका समर्थन पं. सुखलाल संघवी३४ ने भी किया है। उनका मानना है कि प्रथम परम्परा में दोष उत्पन्न होने के कारण ही द्वितीय मत का विकास हुआ है क्योंकि मन:पर्ययज्ञानी दूसरे के मन की पर्यायों को ही जानता है, उसके मन में चिन्त्यमान पदार्थों को तभी जान सकता है जब मन की पर्यायों को जान लिया हो। मन की पर्यायों को जानने के बाद यदि चिन्त्यमान पदार्थों को जानना है उन्हें अनुमान से जाना जा सकता है या फिर अवधिज्ञान से। चिन्तन को जानना तथा चिन्त्यमान पदार्थों को जानना भिन्न-भिन्न प्रकार के कार्य हैं। मनःपर्ययज्ञान से जानने की प्रक्रिया- अढ़ाई द्वीपवर्ती मनवाले संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त किसी भी वस्तु का चिन्तन मन से करते हैं। चिन्तन के समय चिन्तनीय वस्तु के अनुसार मन भिन्न-भिन्न आकृतियों को धारण करता है, ये आकृतियाँ ही मन की पर्यायें हैं । इन मानसिक आकृतियों को मन:पर्ययज्ञानी साक्षात् जानता है और चिन्तनीय वस्तु को मन:पर्ययज्ञानी अनुमान से जानता है, जैसे कोई मानस शास्त्री किसी का चेहरा देखकर या प्रत्यक्ष चेष्टा देखकर उसके आधार से व्यक्ति के मनोगत भावों को अनुमान से जान लेता है, उसी प्रकार मन:पर्यय से मन की आकृतियों को प्रत्यक्ष देखकर बाद में अभ्यास वश ऐसा अनुमान कर लेता है कि इस व्यक्ति ने अमुक वस्तु का चिन्तन किया है क्योंकि उसका मन उस वस्तु के चिन्तन के समय अमुक प्रकार की परिणत आकृति से युक्त है, यदि ऐसा नहीं होता तो इस प्रकार की आकृति नहीं होती इस तरह चिन्तनीय वस्तु का अन्यथानुपपत्ति (इस प्रकार के आकार वाले मनोद्रव्य का परिणाम, इस प्रकार के चिन्तन बिना घटित नहीं हो सकता, इस प्रकार के अन्यथानुपत्ति रूप अनुमान ) द्वारा जानना ही अनुमान से जानना है। इस तरह यद्यपि मन:पर्ययज्ञानी मूर्त द्रव्यों को ही जानता है, परन्तु अनुमान द्वारा वह धर्मास्तिकायादि अमूर्त द्रव्यों को भी जानता है, इन अमूर्त द्रव्यों को उस मन:पर्यायज्ञानी द्वारा साक्षात्कार नहीं किया जा सकता है। उपर्युक्त चर्चा का सारांश यह है कि मन:पर्ययज्ञानी का विषय द्रव्यमन ही होता है, चिन्तन के समय संज्ञी पंचेन्द्रिय के द्रव्य मन में जिन मनोवर्गणा के स्कंधों का निर्माण