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जैनदर्शन में संशय का स्वरूप : 21 "संशयः सर्वप्राणिनां चलितप्रतिपत्त्यात्मकत्वेन स्वात्मसंवेद्यः। सः धर्मिविषयो वस्तु धर्मविषयो वा तात्त्विकातात्त्विककार्यविषयो वा किमेभिर्विकल्पैरस्य बालाग्रमपि खण्डयितुं शक्यते? प्रत्यक्षसिद्धस्याप्यर्थस्वरूपस्यापह्नवे सुखदुःखादेरप्यापह्नवः स्यात्।।" इस प्रकार संशय की सत्ता सिद्ध करने के बाद जैनाचार्यों ने संशय के स्वरूप पर विचार किया है। जैनाचार्यों के अनुसार संशय दो प्रकार का होता है- १. ज्ञानात्मक और २. श्रद्धानात्मक। ज्ञानात्मक संशय को ज्ञान का दोष या मिथ्याज्ञान भी कहते हैं और श्रद्धानात्मक संशय को श्रद्धा का दोष या मिथ्यादर्शन भी कहते हैं। दर्शन-जगत् में मुख्यतया ज्ञानात्मक संशय की ही चर्चा होती है। ऊपर 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' में भी मुख्यत: ज्ञानात्मक संशय की ही चर्चा है। जैन-न्याय-ग्रन्थों में सर्वप्रथम प्रमाणविचार करते हुए सम्यग्ज्ञान को ही प्रमाण का समीचीन लक्षण माना गया है और कहा गया है 'सम्यग्ज्ञान' में 'सम्यक्' पद का प्रयोग संशय-विपर्यय-अनध्यवसाय रूप मिथ्याज्ञानों की निवृत्ति के लिए किया गया है। यथा - "अत्र सम्यक्पदं संशयविपर्ययानध्यवसायनिरासाय क्रियते अप्रमाणत्वादेतेषां ज्ञानानामिति।"२ इसके बाद वहाँ संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय - इन तीनों मिथ्याज्ञानों का स्वरूप इस प्रकार स्पष्ट किया गया है- “विरुद्धानेककोटिस्पर्शिज्ञानं संशयः यथा स्थाणुर्वा पुरुषो वेति। स्थाणुपुरुषसाधारणोद्धृतादिधर्मदर्शनात्तद्विशेषस्य वक्रकोटरशिरपाण्यादेः साधकप्रमाणभावादनेककोट्यवलम्बित्वं ज्ञानस्य। विपरीतैककोटिनिश्चयो विपर्यय: यथा शुक्तिकायामिदं रजतमिति ज्ञानम्। अत्रापि सादृश्यादिनिमित्तवशाच्छुक्तिविपरीते रजते निश्चयः। किमित्यालोचनमात्रानध्यवसायः यथा पथि गच्छतस्तृणस्पर्शादिज्ञानम् । इदं हि नानाकोट्यवलम्बनाभावान संशयः। विपरीतैककोटिनिश्चयाभावान्न विपर्यय इति पृथगेव। एतानि च स्वविषयप्रमितिजनकत्वाभावादप्रमाणानि ज्ञानानि भवन्ति, सम्यग्ज्ञानानि तु न भवन्तीति सम्यक्पदेन व्युदस्यन्ते।'३ संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय को कहीं-कहीं संशय, विभ्रम, मोह शब्दों से भी कहा है, यथा “संशय विभ्रम मोह त्याग, आपो लख लीजे"। 'मोह' को कहीं-कहीं 'विमोह' शब्द से भी कहा गया है। आचार्य विद्यानन्द स्वामी ने विमोह या अनध्यवसाय को अव्युत्पत्ति शब्द से भी कहा है। आचार्य माणिक्यनन्दी को भी अनध्यवसाय के लिए अव्युत्पत्ति शब्द इष्ट रहा है। यथा-“संदिग्धविपर्यस्ताव्युत्पन्नानां"६ कहने का तात्पर्य है कि मोह, विमोह, अव्युत्पत्ति और अनध्यवसाय- ये सभी पर्यायवाची हैं।