Book Title: Sramana 2013 04
Author(s): Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 46
________________ मन:पर्ययज्ञानः विशेषावश्यकभाष्य के...: 39 षट्खण्डागम आदि दिगम्बर साहित्य में ऋजुमति मन: पर्यायज्ञान १२ के तीन भेद - १.ऋजुमनोगत, २. ऋजुवचनगत और ३. ऋजुकायगत तथा विपुलमति मन: पर्यायज्ञान ११ के छह भेद-१. ऋजुमनोगत, २. ऋजुवचनगत, ३. ऋजुकायगत, ४. अनृजुमनस्कृतार्थज्ञ, ५. अनृजुवाक्कृतार्थज्ञ और ६. अनृजुकायकृतार्थज्ञ प्रतिपादित हैं। लेकिन श्वेताम्बर साहित्य में ऋजुमति - विपुलमति के प्रभेदों का उल्लेख नहीं है। मन:पर्ययज्ञानी के मन:पर्ययज्ञान का ज्ञेय विषय क्या है, इसके सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है? इन मतभेदों की चर्चा पंडित सुखलालजी ने ज्ञानबिन्दुप्रकरण १४ में दो मतों के रूप में की है : - १. प्रथम मतः मन:पर्ययज्ञानी मन के द्वारा चिन्त्यमान वस्तु (मनोगत अर्थ ) को जानता है अर्थात् किसी जीव ने मन में जिस सचेतन अथवा अचेतन अर्थ का विचार किया है, उसको आत्मा के द्वारा मन: पर्यायज्ञान प्रत्यक्ष जानता है। इसका यह अर्थ हुआ कि मन के द्वारा चिन्तित अर्थ के ज्ञान के लिए मन को माध्यम नहीं मानकर सीधा उस अर्थ का प्रत्यक्ष होता है। इस मत के समर्थक मन के पर्याय और अर्थपर्याय लिङ्ग और लिङ्गी का सम्बन्ध नहीं मानते हैं। मन मात्र ज्ञान में सहायक है। जैसे किसी ने सूर्य बादलों में है ऐसा देखा तो उसके इस ज्ञान में बादल तो सूर्य को जानने के लिए आधार मात्र हैं, वास्तव में प्रत्यक्ष तो अर्थ का ही हुआ है। इसलिए मन:पर्ययज्ञान में मन की आधार रूप में आवश्यकता है । १५ प्रथम मत के समर्थकः नियुक्तिकार भद्रबाहु, देववाचक, पुष्पदन्त-भूतबलि, उमास्वाति, पूज्यपाद अकलंक, वीरसेनाचार्य, विद्यानंद आदि आचार्यों ने उपर्युक्त प्रथम पक्ष का समर्थन किया है। नंदीसूत्र में भी मन:पर्ययज्ञानी मनुष्य क्षेत्र में रहे हुए प्राणियों के मन द्वारा परिचिंतित अर्थ को प्रकट करने वाला है। इसी प्रकार आवश्यकनिर्युक्ति एवं तत्त्वार्थभाष्य का भी मत है। १७ पूज्यपाद, अकलंक१८ आदि आचार्यों ने भी मन:पर्यय शब्दगत मन का अर्थ दूसरे का मनोगत अर्थ किया हैंपरकीयमनोगतोऽर्थो मन इत्युच्यते। तत्त्वार्थराजवार्त्तिक, धवलाटीका, तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक आदि में भी इसी प्रकार अर्थ किया है। २° यह अर्थ मूर्त है या अमूर्त इसकी स्पष्टता निर्युक्ति, नंदीसूत्र, षट्खण्डागम आदि में प्राप्त नहीं होती है। इसकी स्पष्टता सर्वप्रथम उमास्वाति ने करते हुए कहा है कि अर्थ (मन:पर्यय का विषय ) रूपी द्रव्य है । २१ १ २० षट्खण्डागम के मतानुसार सर्वप्रथम दूसरे के मन का ज्ञान होता है और उसके बाद में दूसरे की मनोगत संज्ञा, स्मृति, मति और चित्त अर्थात् मनोज्ञान के उपरान्त अन्य जीव के मरण, सुख-दुःख, लाभ-अलाभ, क्षेम - अक्षेम, भय-रोग और नगर विकास,

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