Book Title: Sramana 2013 04
Author(s): Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 45
________________ 38 : श्रमण, वर्ष 64, अंक 2 / अप्रैल-जून 2013 २. पूज्यपाद - दूसरे के मनोगत अर्थ को मन कहते हैं। साहचर्य से उसका पर्यय अर्थात् परिगमन करने वाला ज्ञान मन:पर्यय है।३ ३. जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण - मन के विषय अथवा मन संबंधी पर्ययन, पर्यवन अथवा पर्याय अथवा उस (मन) के पर्याय आदि का ज्ञान मन:पर्यय है। ४. अकलंक - वीर्यान्तराय और मन:पर्ययज्ञान के क्षयोपशम से तदनुकूल अङ्गउपाङ्गों का निर्माण होने पर अपने और दूसरे के मन की अपेक्षा से होने वाला ज्ञान मनःपर्यय है।" ५. वीरसेनाचार्य - परकीय मन को प्राप्त हुए अर्थ का नाम मन है और उसकी पर्यायों अर्थात् विशेषों का नाम पर्याय है, उन्हें जो जानता है, वह मन:पर्याय है। ६. वादिदेवसूरि - जो ज्ञान संयम की विशिष्ट शुद्धि से उत्पन्न होता है तथा मन:पर्याय ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है और दूसरे के मन संबंधी बात को जान लेता है, वह मन:पर्याय हैं। ७. हेमचन्द्र - द्रव्य मन के चिंतन के अनुरूप जो नाना प्रकार के पर्याय होते हैं, उन्हें जानने वाला ज्ञान मनःपर्याय ज्ञान है। उपर्युक्त सभी लक्षणों का सार यही है कि मन की पर्यायों को इन्द्रिय और अनिन्द्रिय (मन) की सहायता के बिना सीधे आत्मा से जानना मन:पर्यायज्ञान है। नंदीसूत्र में मन:पर्ययज्ञान के स्वामी के लिए संक्षेप में नवविध पात्रता (शर्ते) आवश्यक मानी गई हैं- १. मनुष्य, २. गर्भजमनुष्य, ३. कर्मभूमिजमनुष्य, ४. संख्यातवर्षायुष्यकमनुष्य, ५. पर्याप्त, ६. सम्यग्दृष्टि, ७. संयत, ८. अप्रमत्तसंयत और ९. ऋद्धिप्राप्त संयत। मनुष्य गति में ही मन:पर्ययज्ञान होता है नरक, तिर्यच और देव गति में मन:पर्ययज्ञान नहीं होता है। मनुष्य गति में भी मन:पर्ययज्ञान दी गई आवश्यक पात्रता को पूर्ण करने वाले मनुष्यों (संयत) को ही मन:पर्ययज्ञान होता है।मन:पर्यायज्ञान दो प्रकार का होता है-ऋजुमति और विपुलमति। ऋजुमतिसामान्य रूप से मनोद्रव्य को जानता है। यह प्राय: विशेष पर्याय को नहीं जानता। ऋजुमति मन:पर्ययज्ञानी इतना ही जानता है कि अमुक व्यक्ति ने घट का चिन्तन किया है, देश, काल आदि से सम्बद्ध घट की अन्य अनेक पर्यायों को वह नहीं जानता।१० विपुलमति- विशेषग्राहिणी मति विपुलमति है। अमुक व्यक्ति ने घड़े का चिन्तन किया है। वह घड़ा सोने का बना हुआ है, पाटलिपुत्र में निर्मित है, आज ही बना है, आकार में बड़ा है, कक्ष में रखा हुआ है, फलक से ढका हुआ है। इस प्रकार के अध्यवसायों के हेतुभूत अनेक विशिष्ट मानसिक पर्यायों का ज्ञान विपुलमति मन:पर्ययज्ञान है।११

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