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मनःपर्ययज्ञानः विशेषावश्यकभाष्य के विशेष सन्दर्भ में
___पवन कुमार जैन [जैन दर्शन में मन:पर्ययज्ञान (मन:पर्याय) ज्ञान को अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष (इंद्रिय और मन: निरेपक्ष) माना गया है तथा विषय अवधि ज्ञान की तरह रूपी पदार्थ ही होता है, अरूपी नही। अवधिज्ञान की अपेक्षा विशुद्ध होता है तथा उससे असंख्यातवें भाग को यह ज्ञान जान सकता है। यह ज्ञान गर्भज़ संज्ञी पर्याप्तक कर्मभूमिज पञ्चेन्द्रिय मनुष्य को होता है, देवादि को नहीं। पञ्चेन्द्रियों में भी सिद्धि प्राप्त अप्रमत्त संयतों को होता है। इस संदर्भ में कोई मतभेद नहीं है परन्तु मन:पर्ययज्ञानी दूसरे के द्रव्य द्वारा मन की पर्यायों को प्रत्यक्ष जानकर पीछे अनुमान द्वारा उसके चिन्तनीय रूपी-अरूपी विषयों को जानता है या उसके द्वारा चिन्तनीय रूपी पदार्थों को प्रत्यक्ष जानता है, अनुमान अपेक्षित नहीं। ये दो मत मन:पर्ययज्ञान के विषय को लेकर हैं। विशेषावश्यकभाष्य में तथा परवर्ती श्ववेताम्बर साहित्य में प्रथम पक्ष (अनुमान से अर्थज्ञान होता है) स्वीकृत है। दिगम्बर परम्परा में तथा पूर्ववर्ती श्वेताम्बर परम्परा में द्वितीय पक्ष स्वीकृत है। पं० सुखलाल संघवी ने इन दोनों मतों की विवेचना कर प्रथम पक्ष को मान्य किया है। लेखक ने भी इसी मत को पुष्ट किया है, विषय चिन्तनीय है।]
-सम्पादक जैनदर्शन में पाँच ज्ञान स्वीकार किये गये हैं- आभिनिबोधिकज्ञान (मतिज्ञान), श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञाना' इन पांचों ज्ञानों को प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से विभक्त किया गया है। प्रत्यक्ष ज्ञान के दो भेद हैं- १. इन्द्रिय प्रत्यक्ष और २. पारमार्थिक प्रत्यक्षा इन्द्रिय प्रत्यक्ष के श्रोत्रेन्द्रियादि पांच और अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष या इन्द्रिय- निरपेक्ष के तीन भेद अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवल ज्ञान हैं। अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष होने के कारण मन:पर्ययज्ञान आत्मा से होने वाला ज्ञान है। इसमें इन्द्रिय एवं मन के सहयोग की आवश्यकता नहीं होती है, इसीलिए यह प्रत्यक्ष ज्ञान है। तत्त्वार्थसूत्र में इन्द्रिय एवं मन से होने वाले ज्ञान (मति, श्रुत) को परोक्ष और आत्मा से होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा है- आत्ममात्रसापेक्षप्रत्यक्षम्। मनःपर्ययज्ञान का लक्षण : १. आवश्यक नियुक्तिकार - मन:पर्ययज्ञान संज्ञीपंचेन्द्रिय के मनश्चिन्तित अर्थ को प्रकट करता है।