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जैन दार्शनिक साहित्य
डॉ. अशोक कुमार सिंह [इस लेख में आरम्भ से लेकर २०वीं शती तक जैन दर्शन पर रचित दार्शनिक कृतियों और टीका साहित्य का कालक्रम के अनुसार नाम -निर्देश किया गया है।]
___ - सम्पादक जैन आगम साहित्य की वर्णित विषय-वस्तु का प्राचीन वर्गीकरण चार अनुयोगों में किया गया है- द्रव्यानुयोग, गणितानुयोग, चरणकरणानुयोग और धर्मकथानुयोग। द्रव्यानुयोग का सम्बन्ध तत्वमीमांसा और ज्ञानमीमांसा से है। तत्त्वमीमांसा वस्तुतः विश्वव्याख्या का एक प्रयास है। इसमें जगत् के मूलभूत उपादानों तथा उनके कार्यों का विवेचन विभिन्न दृष्टिकोणों से किया जाता है। अपने अस्तित्व के लिये किसी अन्य घटक पर आश्रित नहीं रहने वाले तथा कभी भी अपने स्वरूप का त्याग नहीं करने वाले विश्व के मूलभूत घटक द्रव्य कहलाते हैं। द्रव्यानुयोग इन्हीं मूलभूत घटकों का विवचेन करता है।
जैन आगमों में विश्व के मूलभूत घटक के लिये अस्तिकाय, तत्त्व, द्रव्य अर्थ और पदार्थ शब्द का प्रयोग प्राप्त होता है। भगवतीसूत्र, समवायांग और ऋषिभाषित में अस्तिकाय, स्थानांगसूत्र में अस्तिकाय और द्रव्य के अतिरिक्त अर्थ का प्रयोग इसके लिये किया है। सत् शब्द का प्रयोग आगम युग में द्रव्य के लिये नहीं हुआ है। उमास्वाति ने सत् और द्रव्य को अभिन्न बताया है। (तत्त्वार्थसूत्र, ५,२९)। सामान्यतया तत्त्व, पदार्थ, अर्थ और द्रव्य शब्द पर्यायवाची रूप में प्रयुक्त होते हैं परन्तु इनमें तात्पर्य को लेकर भिन्नता पायी जाती है। तत्त्व शब्द सबसे अधिक व्यापक है इसमें पदार्थ और द्रव्य भी समाहित हैं। अर्थ की व्यापकता की दृष्टि से द्रव्य की अपेक्षा पदार्थ और पदार्थ की अपेक्षा तत्त्व अधिक व्यापक है। तत्त्व में पदार्थ और पदार्थ में द्रव्य का समावेश होता है। सत् शब्द इससे भी व्यापक अर्थ में प्रयोग किया गया है। वस्तुत: जो भी अस्तित्ववान् है वह सत् है। जैन दार्शनिक सत् और द्रव्य को अभिन्न अर्थ में सूचित करते हैं- सद् द्रव्यलक्षणं (तत्त्वार्थसूत्र,५,२८)। ज्ञानमीमांसा के अन्तर्गत पंच ज्ञान, प्रमाण, नय, निक्षेप, अनेकान्तवाद, स्याद्वाद एवं सप्तभंगी का विवेचन है। जहाँ तक आगम ग्रन्थों में तत्त्व-मीमांसा के प्रतिपादन का