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34 : श्रमण, वर्ष 64, अंक 2 / अप्रैल-जून 2013 शब्दार्थ-सम्बन्ध - विभिन्न पक्ष : 'रत्नाकरावतारिका' में सर्वप्रथम आदिवाक्य के प्रयोजन में निहित शब्द और अर्थ के सम्बन्ध को लेकर बौद्ध दार्शनिक धर्मोत्तर यह शंका प्रस्तुत करते हैं कि शब्द और अर्थ के मध्य कोई सम्बन्ध हो ही नहीं सकता। यहाँ पर यह ध्यातव्य है कि मीमांसक शब्द और अर्थ के मध्य तादात्म्य-सम्बन्ध मानते हैं। नैयायिक शब्द-अर्थ में तदुत्पत्तिसम्बन्ध मानते हैं और जैन दार्शनिक शब्द और अर्थ में वाच्य-वाचक सम्बन्ध मानते हैं। बौद्ध दार्शनिक आचार्य धर्मोत्तर शब्द और अर्थ के मध्य कोई सम्बन्ध ही स्वीकार नहीं करते हैं, अत: वह अपने मत की पुष्टि हेतु उपर्युक्त तीनों मतों का खण्डन करते हैं। शब्दार्थ-सम्बन्ध-बौद्ध मत : आचार्य रत्नप्रभसूरि ने शब्दार्थ सम्बन्ध के विषय में बौद्ध पक्ष प्रस्तुत करते हुए धर्मोत्तर के विचारों को ग्रहण किया है। पूर्व पक्ष के रूप में धर्मोत्तर यह प्रश्न करते हैं कि शब्द और अर्थ परस्पर एक दूसरे से सम्बद्ध हैं अथवा असम्बद्ध? शब्द और अर्थ परस्पर असम्बद्ध हैं- ऐसा मानना तो उचित नहीं होगा, क्योंकि ऐसा मानने पर शब्दार्थ के बीच वाच्य-वाचक भाव सिद्ध नहीं होगा। ज्ञातव्य है कि जैन दार्शनिकों को शब्दार्थ के मध्य वाच्य-वाचक सम्बन्ध अभिप्रेत है। यदि शब्द और अर्थ एक दूसरे से सम्बद्ध हैं, ऐसा मान लिया जाए तो विचारणीय है कि उनके मध्य कौन सा सम्बन्ध है? क्या तादात्म्य सम्बन्ध है या तदुत्पत्ति सम्बन्ध है अथवा वाच्य-वाचक सम्बन्ध है?" इस प्रकार शब्दार्थ सम्बन्ध को लेकर बौद्ध दार्शनिक आचार्य धर्मोत्तर के माध्यम से आचार्य रत्नप्रभसूरि चार प्रकार के मतों का उल्लेख करते हैं
तादात्म्य-सम्बन्ध
तदुत्पत्ति-सम्बन्ध ३. वाच्य-वाचक सम्बन्ध
कोई सम्बन्ध नहीं। तदुपरान्त क्रमशः इन मतों की परीक्षा करते हैं : मीमांसक अभिमत तादात्म्य सम्बन्ध : मीमांसक शब्द और अर्थ के मध्य तादात्म्य-सम्बन्ध स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार शब्द और अर्थ परस्पर अभिन्न हैं। जो शब्द है वही अर्थ है तथा जो अर्थ है वही शब्द है। दोनों में अभिन्नता है, अभेद है।
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