Book Title: Sramana 2013 04
Author(s): Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 31
________________ 24 : श्रमण, वर्ष 64, अंक 2 / अप्रैल-जून 2013 इन पाँचों का स्वरूप इस प्रकार बताया गया हैतत्र इदमेव... ...हिताहितपरीक्षाविररहोऽज्ञानिकत्वम्। १६ अर्थात् यही है या ऐसा ही है - ऐसा धर्म-धर्मी का ऐकान्तिक श्रद्धान एकान्त मिथ्यादर्शन है, जैसे-यह सब पुरुष ही हैं अथवा वस्तु नित्य या अनित्य ही है। साधु परिग्रही होते हैं, केवली कवलाहारी होते हैं, स्त्री को तद्भव -मुक्ति प्राप्त होती है। यह विपरीत मिथ्यादर्शन है। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र की एकता मोक्षमार्ग है या नहीं- ऐसा मानना संशय मिथ्यात्व है। सभी देवों को और सभी धर्मों को समान मानना वैनयिक मिथ्यात्व है। हिताहित का परीक्षण न करना अज्ञान मिथ्यात्व है। इन पाँच प्रकार के मिथ्यादर्शनों में से संशय नामक मिथ्यादर्शन को ही श्रद्धानात्मक संशय कहते हैं। ज्ञानात्मक संशय को मिथ्याज्ञान कहते हैं और श्रद्धानात्मक संशय को मिथ्यादर्शन कहते हैं। विचारणीय है कि ज्ञानात्मक संशय (मिथ्याज्ञान) और श्रद्धानात्मक संशय में मूलभूत अन्तर क्या है? वस्तुतः बात यह है कि सामान्यतः किसी भी विषय को जानने में जो संशय होता है उसे ज्ञानात्मक संशय कहते हैं किन्तु जब वही संशय किसी मोक्षमार्ग के प्रयोजनभूत विषय के सम्बन्ध में होता है तो उसे श्रद्धानात्मक संशय कहते हैं, क्योंकि उसमें मात्र ज्ञानावरण कर्म का उदय निमित्त नहीं होता, मोहनीय कर्म का उदय भी निमित्त होता है। श्रद्धानात्मक संशय की अवधारणा तो जैनाचार्यों की ही विशिष्ट देन है। सन्दर्भ : १. ३. ४. ५. ७. ८. प्रमेयकमलमार्तण्ड, सम्पा. पं. महेन्द्र कुमार शास्त्री, सत्यभामाबाई पाण्डुरङ्ग, द्वि. सं. १९४१ मुम्बई, सूत्र १ / ३ | न्यायदीपिका, संपा. पं. दरबारीलाल जैन कोठिया, बनारस, १९८९-९०, १/८। वही, १/९। छहढाला, कविवर दौलतराम, अनु. मगनलाल जैन, दि. जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ़, ४/६ । तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, संपा. विद्यानन्द, पं. वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री, सोलापुर, १९४९, अध्याय १, सूत्र ११, श्लोक ३५३, ३५५, । परीक्षामुखसूत्रम्, माणिक्यनन्दि, संपा. डॉ. योगेशचन्द्र जैन, पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, जयपुर तृ. सं. २००९, ३/१७। वही, १/५। तत्त्वार्थवार्तिक, आचार्य अकलंक, संपा. प्रो. महेन्द्र कुमार जैन, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, १९४३, १/१५/९।

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