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जैनदर्शन में संशय का स्वरूप : 23 संशय के सम्बन्ध में एक अन्य भ्रान्ति यह है कि कुछ लोग जिज्ञासा या प्रश्न को भी संशय समझ लेते हैं, परन्तु वास्तव में देखा जाए तो जिज्ञासा संशय नहीं है। जिज्ञासा और संशय में बहुत अन्तर है। जिज्ञासा में जानने की इच्छा है, प्रश्न का उत्तर बताने का निवेदन है, परन्तु संशय में ऐसी कोई बात नहीं है। दरअसल ज्ञान के अनेक रूप होते हैं- जिज्ञासा, प्रश्न, संशय आदि। हमें इन सब में विद्यमान सूक्ष्म अन्तर को समझना चाहिए। इसी प्रकार कुछ लोग अवग्रह ज्ञान को भी जो कि मतिज्ञान का एक (प्रथम) भेद है, संशय समझ लेते हैं, परन्तु संशय और अवग्रह ज्ञान में भी बड़ा अन्तर है, अवग्रह ज्ञान संशय ज्ञान नहीं है। जैसा कि आचार्य अभिनव धर्मभूषण यति ने भी स्पष्ट कहा है- तत्रेन्द्रियार्थसमवधानसमनन्तरसमुत्थसत्तालोचनान्तरभावी सत्ताऽवान्तर जातिविशिष्टवस्तुग्राही ज्ञानविशेषोऽवग्रहः - यथाऽयं पुरुष इति। नाऽयं संशयः, विषयान्तरव्युदासेन स्वविषयनिश्चयात्मकत्वात्। तद्विपरीतलक्षणो हि संशयः।१३ अर्थात् इन्द्रिय और अर्थ के मिलन के तुरन्त बाद होने वाला और सत्तावलोकन के बाद अवान्तर सत्ता को विषय करने वाले ज्ञानविशेष को अवग्रह कहते हैं, जैसे-यह पुरुष है। यह अवग्रह संशय नहीं है, क्योंकि इसमें अन्य विषय नहीं है और विषय का निश्चय है। संशय इससे विपरीत होता है। १ अनेकार्थाऽनिश्चितापर्युदासात्मकः संशय:ततद्विपरीतोऽवग्रहः।१४ २ संशयो हि निर्णयविरोधी नत्ववग्रहः।१५ अर्थात् अनेक अर्थों में अनिश्चयरूप संशय होता है, जबकि अवग्रह इससे विपरीत होता है। संशय ही निर्णय-विरोधी होता है, न कि अवग्रह। इस प्रकार संशय के प्रधान भेद ज्ञानात्मक संशय का स्वरूप हुआ। अब संशय के द्वितीय भेद श्रद्धानात्मक संशय का स्वरूप समझने का प्रयत्न किया जाता है। कहा जा चुका है कि श्रद्धानात्मक संशय श्रद्धा का दोष है जिसे जैन ग्रन्थों में मिथ्यात्व या मिथ्यादर्शन भी कहा जा सकता है। जैनदर्शन के अनुसार मिथ्यात्व पाँच प्रकार का होता है१- एकान्तमिथ्यादर्शन २- विपरीतमिथ्यादर्शन ३- संशयमिथ्यादर्शन ४- वैनयिकमिथ्यादर्शन ५- अज्ञानिकमिथ्यादर्शन