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22 : श्रमण, वर्ष 64, अंक 2 / अप्रैल-जून 2013
संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय- इन तीनों को जैन ग्रन्थों में 'समारोप' - शब्द से भी जाना जाता है जैसा कि 'परीक्षामुखसूत्र' के निम्नलिखित सूत्र में कहा गया है“दृष्टोऽपि सम्रोपात्तादृक्।"" अर्थात् देखा जाना हुआ अर्थ भी यदि ‘समारोप' लग जाए तो पुनः अपूर्वार्थ हो जाता है। यहाँ समारोप शब्द का अर्थ संशय-विपर्ययअनध्यवसाय है। इसप्रकार संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय की चर्चा प्रायः सर्वत्र एक साथ ही उपलब्ध होती है, परन्तु यहाँ हमारा प्रयोजन मात्र संशय का ही स्वरूप स्पष्ट करना है, विपर्यय और अनध्यवसाय की चर्चा पृथक् रूप से फिर कभी करेंगे अथवा उसे प्रमेयकमलमार्तण्ड, प्रमेयरत्नमाला आदि ग्रन्थों से देखना चाहिए। संशय का एक लक्षण ‘न्यायदीपिका' ग्रन्थ से ऊपर उद्धृत किया जा चुका है। इसी प्रकार के लक्षण अन्य भी अनेक जैन ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं जिनमें से कतिपय, प्रमुख लक्षण इस प्रकार हैं
१ अनेकाथाऽनिश्चिताऽपर्युदासात्मकः संशयः तद्विपरीतोऽवग्रहः।'
२ अनवस्थितकोटीनामेकत्र परिकल्पनाम् । शुक्ति वा रजतं किं वेत्येव संशयलक्षणम्। ३ संशयो नामानवधारितार्थज्ञानम् ॥१०
४ एकधार्मिकविरुद्धनानाधर्मप्रकारक ज्ञानं हि संशयः । ११
ध्यातव्य है कि प्रायः लोग ऐसा कहते हैं कि संशय दो कोटियों को स्पर्श करने वाला होता है परन्तु यहाँ दो या उभय पद का प्रयोग नहीं किया गया है बल्कि अनेक पद का प्रयोग किया है। इससे सिद्ध होता है कि संशय में दो ही कोटियों का स्पर्श होना आवश्यक नहीं है, दो का भी हो सकता है और दो से अधिक का भी हो सकता है।
इसी प्रकार कुछ लोग ऐसा भी कहते हैं कि इन कोटियों में से एक सत्य होती है और एक असत्य। परन्तु यहाँ ऐसा भी कुछ नहीं कहा गया है। इससे ज्ञात होता है कि संशयज्ञान की ये कोटियाँ सब की सब असत्य भी हो सकती हैं। यह आवश्यक नहीं है कि उनमें एक सत्य ही हो। यह बात उदाहरण से भी सहज समझ में आती है यथा- किसी को संशय होता है कि यह सीप है या चाँदी । यहाँ यह हो सकता है कि वह वस्तु दोनों ही न हो, एल्युमिनियम, पन्नी आदि कुछ और ही चमकीली वस्तु हो। किन्तु यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि संशयज्ञान की सभी कोटियाँ असत्य होते हुए भी सर्वथा असत्य (असत्) नहीं होतीं, उन-उन अर्थों की लोक में सत्ता अवश्य होता है, सर्वथा असत् वस्तु का संशय नहीं होता। यही कारण है कि जैनाचार्यों ने संशय के द्वारा भी आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि की है, यथा- सत्यपि संशये तदालम्बनादात्मसिद्धिः। न हि अवस्तुविषयः संशयो भवति । ११ इस प्रकार संशयज्ञान मिथ्या होते हुए भी वस्तु की सत्ता को सिद्ध करता है - यह बड़ी अद्भुत बात है।