Book Title: Sramana 2013 04
Author(s): Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 27
________________ 20 : श्रमण, वर्ष 64, अंक 2 / अप्रैल-जून 2013 हैं, अर्थात् संशयज्ञान में स्थाणुत्व, पुरुषत्व अथवा उभयरूपत्व झलके, उनमें हम वही बात पूछेगे कि वह स्थाणुत्वादि सत् है या असत्? यदि सत् है तो सत् वस्तु को बतलाने वाला ज्ञान झूठ कैसे? और यदि वह स्थाणुत्व धर्म असत् है तो वह ज्ञान भ्रांतिरूप ही रहा? यदि कहा जाय कि एक धर्म (स्थाणुत्व) सत् है और एक (पुरुषत्व) असत् है, तब वह एक ही ज्ञान भ्रांत तथा अभ्रांत दो रूप हुआ? यदि कहा जाय कि संशय में संदिग्ध पदार्थ ही झलकता है तो उस पक्ष में भी वह है या नहीं इत्यादि प्रश्न और वही दोष आते हैं इसलिए संशय नाम का कोई ज्ञान नहीं है। उत्तरपक्ष (जैन)- तत्त्वोपप्लववादी का यह कथन समीचीन नहीं है, क्योंकि संशय तो प्रत्येक प्राणी को चलित प्रतिभास रूप से अपने आप ही स्पष्ट समझ में आता है। संशय का विषय चाहे धर्म हो चाहे धर्मी, सत् हो चाहे असत् इतने विकल्पों से संशय का बालाग्र भी खण्डित नहीं कर सकते, क्योंकि इस प्रकार आप प्रत्यक्षसिद्ध वस्तु का भी अभाव करने लगोगे तो सुख-दुःखादि का भी अभाव करना चाहिए? आश्चर्य की बात है कि आप स्वयं ही इस संशय का विषय धर्म है या धर्मी, सत् है या असत् इस प्रकार के संशयरूपी झूले में झूल रहे हो और फिर भी उसी का निराकरण करते हो, सो अस्वस्थ हो क्या? किञ्च - आप उत्पादक कारण का अभाव होने से, संशय को नहीं मानते हो या उसमें असाधारण रूप का अभाव होने से अथवा विषय का अभाव होने से संशय को नहीं मानते हो? प्रथम पक्ष अयुक्त है, देखो! संशय का उत्पादक कारण मौजूद है। किस कारण से संशय पैदा होता है सो बताते हैं-ऐसा व्यक्ति जिसने स्थाणुत्व और पुरुषत्व के संस्कार को प्राप्त किया है जब असमान विशेष धर्म जो मस्तक-हस्तादिक हैं तथा वक्र-कोटरत्वादि हैं उनका प्रत्यक्ष तो नहीं कर रहा और समान धर्म जो ऊर्ध्वता आदि हैं उनको देख रहा है तब उस व्यक्ति को अंतरंग में मिथ्यात्व के उदय होने पर संशय ज्ञान पैदा होता है। संशय के असाधारण स्वरूप का अभाव भी नहीं है, देखो! चलित प्रतिभास होना यही संशय का असाधारण स्वरूप है। विषय का अभाव भी दूर से ही समाप्त होता है- स्थाणुत्व-विशिष्ट से अथवा पुरुष-विशिष्ट से जिसका अवधारण नहीं हुआ है ऐसा ऊर्ध्वता-सामान्य ही संशय का विषय माना गया है और वह विद्यमान ही है।" इस सम्बन्ध में आचार्य प्रभाचन्द्र के अपने मूल शब्द भी द्रष्टव्य हैं जहाँ उन्होंने अत्यन्त दृढ़तापूर्वक कहा है कि संशय सर्वजनसुलभ एवं स्वात्मसंवेद्य है, उसका बाल की नोक के बराबर भी खण्डन किसी के द्वारा नहीं किया जा सकता

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