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जैन अंग-आगम में वासुदेव....: 13 भागजाओ", और अपने मृत्यदाता के प्राण बचाते हैं। इस घटना से सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि वे सचमुच में कषायविजेता थे। (८) धर्म-प्रभावक - वे कुशल धर्म प्रभावक थे। उनकी प्रभावना का ही परिणाम था कि पद्मावती, गौरी आदि पटरानियों के अतिरिक्त अनेक लोगों ने अर्हत अरिष्टनेमि के पास दीक्षा ग्रहण करके आत्म-कल्याण किया था।४५ इतना ही नहीं वे द्वारिका नगरी के विनाश का समाचार प्राप्त करके अपनी जनता को सन्यास-धर्म को स्वीकार कर आत्म-कल्याण के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं और पीछे रहे हुए पारिवारिक जनों की सम्पूर्ण व्यवस्था करवाते हैं। इन सभी उदाहरणों से वासुदेव श्रीकृष्ण का एक विशिष्ट धर्मप्रभावक स्वरूप सामने आता है। इस प्रकार प्रस्तुत आगम में वासुदेव श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व के विविध वैशिष्ट्यों का विवेचन हुआ है। (५) प्रश्नव्याकरण सूत्र - प्रश्नव्याकरण सूत्र दसवां अंग आगम है। इसके प्रथम श्रुतस्कंध के चतुर्थ आस्रवद्वार में कृष्ण वासुदेव को रुक्मिणी और पद्मावती के विवाह के निमित्त जो युद्ध करने पड़े उनका वर्णन करते हुए कृष्ण को अतिबली कहा गया है।६ तथा उन्हें अर्धचक्रवर्ती राजा बताते हुए उनकी रानियों, पुत्रों और परिजनों का वर्णन किया गया है। कृष्ण को चारणमूल, रिष्टबैल तथा काली नामक सर्प का हन्ता, यमलार्जुन के नाशक, महाशकुनि और पूतना के रिपु, कंसमर्दक, जरासंध नाशक ७ इत्यादि रूप से वर्णन करते हुए उनकी वीरता को दर्शाया गया है। इस प्रकार इस आगम में मुख्यरूपेण उनकी वीरता का परिचय गुम्फित हुआ है। इन अंगों के अतिरिक्त प्रथम मूल आगम- उत्तराध्ययन सूत्र के २२वें अध्याय, चतुर्थ उपांग - 'प्रज्ञापना सूत्र' तथा अष्टम उपांग 'निरयावलिका सूत्र' में भी कृष्ण वासुदेव की विशेषताओं का उल्लेख प्राप्त होता है। जैनागमों में उनका स्वरूप कुशल राजा, कुशल राजनीतिज्ञ, कुशल नेता, धर्मात्मा, मातृ-पितृ भक्त, प्रजावत्सल, कुशल मार्गदशक आदि रूपों में अभिव्यक्त हुआ है। इस प्रकार कृष्ण वासुदेव के विशद जीवन का प्रभाव बौद्ध परम्परा में अपेक्षाकृत कम
और जैन तथा वैदिक परम्परा में भरपूर पड़ा है। इस आलेख का प्रतिपाद्य यही है कि एक व्यक्ति साधना के बल पर इतना उन्नत हो सकता है कि उसका जीवन सदियों तक दूसरों के लिए पथ-प्रदर्शक एवं प्रेरणा-दायी बन जाता है । जैन परम्परा में कृष्ण सामान्य व्यक्ति की ही भाँति अपने सद्गुणों से जीवन का विकास करते हैं। जैन परम्परा ईश्वर या तीर्थंकर में अचिन्त्य बल का होना