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14 : श्रमण, वर्ष 64, अंक 2 / अप्रैल-जून 2013 स्वीकार करती है किन्तु वह बल उस आत्मा के क्रमिक साधना का ही सुपरिणाम है। प्रत्येक आत्मा अपने ढंग से अपने जीवन का निर्माण कर सकती है इस अर्थ में प्रत्येक आत्मा सृष्टिकर्ता है। इस प्रकार जैन परम्परा में कृष्ण वैदिक परम्परा की तरह अवतारी पुरुष नहीं हैं जो कि पूर्वनिर्धारित घटनाओं की मात्र लीला करते हों। यहाँ तो वे साधारण व्यक्ति की ही तरह यथार्थ के धरातल पर जीवन का परिष्कार करके महान बनते हुए पाए जाते हैं। जिससे सहज ही यह बोध प्राप्त हो जाता है कि 'प्रत्येक आत्मा अपने सत्पुरुषार्थ
और पराक्रम से परमात्म अवस्था को उपलब्ध कर सकती है। भगवान महावीर ने कहा भी है अप्पा सो परमप्पा अर्थात् आत्मा ही अपने प्रयास से परमात्मा बनती है। जीवन-विकास की चरम-स्थिति का नाम ही परमात्मावस्था है और वही विकास हम सबका अंतिम लक्ष्य है। उस लक्ष्य की प्राप्ति में कृष्ण जैसे महापुरुषों के जीवन की घटनाएँ एवं प्रेरणाएँ पाथेय सिद्ध होती हैं। इस प्रकार कृष्ण वासुदेव के जीवन से विभिन्न प्रकार की शिक्षाओं को ग्रहणकर अपना पूर्ण आत्म-विकास किया जा सकता है।
सन्दर्भ :
महाभारत, शान्ति पर्व, अ. ४८ तथा श्रीमद्भागवद्गीता। घटजातक, संख्या ४५४।। त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, ८/७/४४६-४४५७। अन्तकृद्दशांगसूत्र, वर्ग ५, अ.१। अन्तकृद्दशांगसूत्र, पृ.२४। त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, ८/७/४६६/-४५७। ऋग्वेद, आरण्यक, ब्राह्मण, उपनिषद्, महाभारत, श्रीमद्भागवद् गीता, पुराण,इत्यादि। ऋग्वेद, ८/८५, १-९, १०, ४२-४४, १/११६,२३, ८/९६, १३१५ इत्यादि। ऐतरेय आरण्यक, ३/२/६।।
तैत्तिरीय आरण्यक, १०/१/६। ११. कौशीतकि ब्राह्मण, ३०/९/७, छांदोग्योपनिषद्, ३/१७,४-६।
महाभारत, शांतिपर्व, ४३/५।
श्रीमद्भागवत्, १०/२/२५-३१, विष्णुपुराण, ५/२१। १४. श्रीमद्भागवत्, दशमस्कन्ध, ८/४५/३/१३,२४/२५ आदि। १५. उत्तराध्ययनसूत्र, २२/१,२,३,४,५।
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