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जैन अंग-आगम में वासुदेव....: 11 “भगवन् मेरा भविष्य क्या होगा ? अर्थात् मैं मृत्यु के उपरान्त कहाँ जाऊँगा? कृष्ण! द्वारिका-विनाश के बाद बलराम के साथ पाण्डुमथुरा की ओर जाते हुए कोशाम्रवन में न्यग्रोध वृक्ष के नीचे लेटे हुए आपके बाएँ पैर में जराकुमार द्वारा छोड़ा गया तीर लगने पर आपकी मृत्यु होगी और आपकी गति बालुकाप्रभा नामक तीसरी भूमि की होगी किन्तु कृष्ण ! निराश न हो, वहाँ से निकलकर तुम अगली चौबीसी में अमम नाम के बारहवें तीर्थंकर बनोगे और सर्वकर्मों से मुक्त होकर परिनिर्वाण अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करोगे।” ३९ भगवान् के द्वारा अपना भविष्य जानकर वासुदेव कृष्ण धर्म की ओर और भी अधिक प्रवृत्त होते हैं और सम्पूर्ण जनता को अध्यात्म पथ पर चलने की प्रेरणा देते हैं।
(३) करुणा- पुरुष कृष्ण वासुदेव अत्यन्त दयालु थे। उनकी सहृदयता के उदाहरण आगमों में अनेकशः प्राप्त होते हैं। अन्तकृद्दशांगसूत्र के अनुसार एक बार अर्हत अरिष्टनेमिनाथ को वन्दन करने जाते हुए कृष्ण वासुदेव एक जरा से जर्जरित वृद्ध को ईंटों की विशाल राशि में से एक-एक ईंट उठाकर घर के भीतर ले जाते हुए देखते हैं और दयार्द्र होकर स्वयं ईट उठाने लगते हैं। सैकड़ों लोगों ने भी उनका अनुकरण किया और वह ईंटों की विशाल राशि देखते ही देखते बाहर से भीतर पहुंच गई। यह घटना कृष्ण के जीवन की एक आदर्श घटना है तथा यह बोध कराती है कि व्यक्ति पद से बड़ा नहीं होता अपितु गुणों से बड़ा होता है ।
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इस घटना से यह भी पता चलता है कि भारतीय जनमानस में क्यों कृष्ण वासुदेव का जीवन इतनी श्रद्धा के साथ अंकित है। वस्तुतः वे सच्चे प्रजावत्सल थे। वे चाहते तो सेवकों से कहकर ईंटों की राशि को भीतर पहुंचवा सकते थे, किन्तु तब वह घटना इतनी आदर्श एवं प्रेरणादायी नहीं हो पाती।
(४) सच्चे हितैषी - कृष्ण वासुदेव सच्चे हितैषी थे। जब उन्हें पता चला कि द्वारिका का विनाश अवश्यंभावी है तो वे निराश नहीं हुए अपितु सम्पूर्ण नगरी में घोषणा करवायी कि जीवन में एकमात्र सच्चा सहारा धर्म का है, वही हमें त्राण और आनन्द दे सकता है अतएव जो भी कोई भगवान् अरिष्टनेमि के पास दीक्षित होना चाहता है वह प्रसन्नता के साथ तैयार हो जाए मैं स्वयं उसका दीक्षोत्सव आयोजित करूंगा। इतना ही नहीं उनके पीछे स्थित परिवारजनों का भी यथायोग्य आजीविका देकर भरपूर पालन-पोषण करूंगा।४१ इस उदाहरण के द्वारा कृष्ण वासुदेव की अगाध धर्मश्रद्धा और प्रजाहितैषी की दिव्यता को समझा जा सकता है। वस्तुतः सच्चा हितैषी वही है जो हमें धर्म के मार्ग पर लगाए। जैन आगमों में मातृ-पितृ ऋण से मुक्त होने का