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8 : श्रमण, वर्ष 64, अंक 2 / अप्रैल-जून 2013 कण्हस्स णं वासुदेवस्स अट्ठ अग्गमहिसीओ अरहतो णं अरिट्ठनेमिस्स अंतितं मुंडा भवेत्ता अगारातो अणगारितं पव्वतित्ता सिद्धओ जाव सव्वदुक्खप्पहीणाओ, तंजहा पउमावई य गोरी, गंधारी लक्खणा सुसीमा या जंबवती सच्चभामा, रुप्पिणी कण्हग्गमहिसीओ।।९७।।२८ अर्थात् कृष्ण की आठ पटरानियों-पद्मावती, गौरी, लक्ष्मणा, सुसीमा, जाम्बवती, सत्यभामा, गांधारी और रुक्मिणी ने भगवान् अरिष्टनेमि के पास मुंडित, प्रव्रजित होकर सर्वदुःखों से रहित सिद्धावस्था को प्राप्त किया। (२) समवायांग सूत्र- चतुर्थ अंग-आगम समवायांगसूत्र के अनुसार प्रत्येक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल में २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलदेव, ९ वासुदेव आदि श्लाघनीय महापुरुष होते हैं। वहाँ वर्तमानकालीन एवं आगामीकालीन उक्त महापुरुषों के नामों का भी उल्लेख है। सम्भवतया इसी आधार पर शीलांकाचार्य ने चउपन्न महापुरिस चरियं की रचना की है। उक्त संख्या में यदि ९ प्रतिवासुदेवों को भी जोड़ दिया जाए तो यह संख्या ६३ हो जाती है । इन ६३ महापुरुषों को लेकर ही हेमचन्द्राचार्य के द्वारा त्रिषष्टि-शलाका-पुरुष चरित्र नामक ग्रंथ की रचना हुई है। इस प्रकार समवायांग सूत्र२९ में ५४ शलाका महापुरुषों का वर्णन करते हए कृष्ण की विशेषताओं का उल्लेख विस्तार से किया गया है तथा श्रीकृष्ण के द्वारा तत्कालीन प्रतिवासुदेव जरासंध के वध का भी विस्तार से विवेचन किया गया है। यहाँ वासुदेव और प्रतिवासुदेव का आचरण भी वर्णित है। चूंकि जैन परम्परा में प्रतिवासुदेव की मृत्यु वासुदेव के ही हाथों होना माना गया है। अत: जरासंध की मृत्यु के बाद ही कृष्ण वासुदेव के अधिकारों को प्राप्त कर सके थे। यहाँ कृष्ण की अनेक विशेषताओं का वर्णन करते हुए कहा गया है- वे अतिबल, महाबल, निरुपक्रम आयुष्य वाले, अपराजित, शत्रु का मान मर्दन करने वाले, दयालु, गुणग्राही, अमत्सर, अचपल, अक्रोधी तथा रोष-शोकादि से रहित गम्भीर स्वभाव वाले थे। स्पष्ट है कि इन सभी उद्धरणों में कृष्ण वासुदेव का शलाका महापुरुष के रूप में उल्लेख हुआ है। वे नौवें और अंतिम वासुदेव थे तथा २२वें तीर्थंकर अरिष्टनेमि के भ्राता थे२० अर्थात् अरिष्टनेमि के पिता समुद्रविजय और कृष्ण के पिता वसुदेव- दोनों भाई थे अतः स्पष्ट है कि अरिष्टनेमि और कृष्ण भी भाई थे। (३) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र- छठे अंग-आगम-ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र के पांचवें और सोलहवें अध्ययन में कृष्ण वासुदेव की विविध विशेषताओं का वर्णन हुआ है। पंचम अध्याय से उनकी आध्यात्मिक अभिरुचि का पता लगता है। जब उनको पता चलता है कि थावच्चापुत्र दीक्षा लेना चाहता है तब उन्होंने तुरन्त कहा कि उसका दीक्षाभिषेक