Book Title: Sramana 1990 07 Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi View full book textPage 9
________________ दो भागों में बँट गया। पाश्र्वापत्यों के प्रभाव से आपवादिक रूप में एवं शीतादि के निवारणार्थ गृहीत हुए वस्त्र, पात्र आदि जब मुनि की अपरिहार्य उपाधि बनने लगे, तो परिग्रह की इस बढ़ती हुई प्रवृत्ति को रोकने के प्रश्न पर आर्य कृष्ण और आर्य शिवभूति में मतभेद हो गया । आर्य कृष्ण जिनकल्प का उच्छेद बताकर गृहीत वस्त्र-पात्र को मुनिचर्या का अपरिहार्य अंग मानने लगे, जबकि आर्य शिवभूति ने इनके त्याग और जिनकल्प के आचरण पर बल दिया। उनका कहना था कि समर्थ के लिए जिनकल्प का निषेध नहीं मानना चाहिए। वस्त्र-पात्र का ग्रहण अपवाद मार्ग है, उत्सर्ग मार्ग तो अचेलता ही है । आर्य शिवभूति की उत्तर भारत की इस अचेल परम्परा को श्वेताम्बरों ने बोटिक ( भ्रष्ट ) कहा। किंतु आगे चलकर यह परम्परा यापनीय के नाम से ही अधिक प्रसिद्ध हुई। गोपाचल में विकसित होने के कारण यह गोप्यसंघ के नाम से भी जानी जाती थी। षट्दर्शनसमुच्चय की टीका में गुणरत्न ने गोप्य संघ या यापनीय संघ को पर्यायवाची बताया है। यापनीय संघ की विशेषता यह थी कि एक ओर यह श्वे० परम्परा के समान आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि अर्द्धमागधी आगम साहित्य को मान्य करता था, जो कि उसे उत्तराधिकार में ही प्राप्त हुआ था, साथ ही वह सचेल, स्त्री और अन्यतैथिकों की मुक्ति को स्वीकार करता था। आगम साहित्य के वस्त्र-पात्र संबंधी उल्लेखों को वह साध्वियों एवं आपवादिक स्थिति में मुनियों से संबंधित मानता था। किन्तु दूसरी ओर वह दिगम्बर परम्परा के समान वस्त्र और पात्र का निषेध कर मुनि की नग्नता पर बल देता था। यापनीय मुनि नग्न रहते थे और पाणीतलभोजी ( हाथ में भोजन करने वाले ) होते थे। इसके आचार्यों ने उत्तराधिकार में प्राप्त आगमों की गाथाओं से शौरसैनी प्राकृत में अनेक ग्रन्थ बनाये। इनमें कषायप्राभृत, षट्खण्डागम, भगवती-आराधना, मूलाचार आदि प्रसिद्ध हैं। ___ दक्षिण भारत में अचेल निम्रन्थ परम्परा का इतिहास ईस्वी सन् की तीसरी-चौथी शती तक अन्धकार में ही है। इस सम्बन्ध में हमें न तो विशेष साहित्यिक साक्ष्य ही मिलते हैं और न अभिलेखीय ही। यद्यपि इस काल के कुछ पूर्व के ब्राह्मी लिपि के अनेक गुफा अभिलेख तमिलनाडु में पाये जाते हैं किन्तु वे श्रमणों या निर्माता के नाम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 94