Book Title: Sramana 1990 07
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 66
________________ २२-वि० सं० १६५९ भाद्रपद सुदि ७ शनिवार जिनालय में नव चौकी के सम्मुख भाग में पाट पर उत्कीर्ण लेख। इनके अलावा जिनालय में मूलनायक के पीछे दीवाल पर दो मूत्तियों एवं नबीन चौकी के बायीं ओर भी लेख उत्कीर्ण हैं, परन्तु इनमें काल निर्देश नहीं है। । उक्त सभी लेख नाणा स्थित महावीर जिनालय में उत्कीर्ण हैं। इन लेखों के सम्बन्ध में विस्तार के लिए द्रष्टव्य -- मुनि जयन्तविजय-संपा० अर्बुदाचलप्रदक्षिणाजैनलेखसंदोह, लेखाङ्क ३४१-३६४ नाणा से ही नाणकीयगच्छ जिसका श्वेताम्बर चैत्यवासी गच्छों में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है, अस्तित्व में आया। इस गच्छ के कई नाम मिलते हैं यथा - नाणगच्छ, नाणागच्छ, नाणावालगच्छ, ज्ञानकीयगच्छ आदि। यह गच्छ वि. सं. की ११वीं शती के लगभग अस्तित्व में आया और १६वीं शती के अन्त तक विद्यमान रहा। शांतिसूरि इस गच्छ के पुरातन आचार्य माने जाते हैं। उनके बाद सिद्धसेनसूरि, धनेश्वरसूरि और महेन्द्रसूरि क्रमानुसार गच्छनायक हुए। इस गच्छ के पट्टधर आचार्यों के यही चार नाम पुनः पुनः मिलते हैं। चैत्यवादी गच्छों में प्रायः यही परम्परा मिलती है। ऐसा प्रतीत होता है कि गच्छ के प्रारम्भिक एवं प्रभावशाली आचार्यों के नाम उनके 'पट' के रूप में रूढ हो जाते थे और उन पर प्रतिष्ठित होने वाले मुनि को आचार्य पद के साथ-साथ गच्छनायक के रूप में उक्त 'पट्टनाम' भी प्राप्त होता रहा । नाणकीयगच्छ के मुनिजन चैत्यों, जिनमंदिरों एवं उपाश्रयों की देख-रेख में ही अपना सम्पूर्ण समय व्यतीत करते रहे। श्रावकों को नूतन जिनालय एवं तीर्थंकर प्रतिमाओं के निर्माण की प्रेरणा देना और उनकी आडम्बरपूर्वक प्रतिष्ठा करना ही इनका प्रधान कार्य रहा । विधिमागियों द्वारा चैत्यवास के प्रबल विरोध के बाद भी दीर्घकाल तक चैत्यवासियों का अस्तित्व बना रहना समाज पर इनके व्यापक प्रभाव का परिचायक है । १. नाणकीयगच्छ के सम्बन्ध में विस्तार के लिये द्रष्टव्य नाणकीयगच्छ" श्रमण-वर्ष ४०, अंक ७, पृ० २-३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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